ध्यान रखना, सवाल है : उसे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह बीमारी में हूं
या मैं बीमार हूं। बीमारी तो आती है; जैसे तुम्हें आती है, उसे भी आती है।
अरे, जब भूख आती है प्यास आती है.; जवानी आती है, बुढ़ापा आता है, तो बीमारी
न आएगी? बीमारी भी आएगी, बुढ़ापा भी आएगा और मृत्यु भी आएगी। मगर तीर्थंकर
को जरा भी प्रभावित नहीं करती। ‘तीर्थंकर अछूता रह जाता है, अस्पर्शित रह
जाता है।
यह तो बात समझ में आने की है। लोकेन यह बात मूढ़तापूर्ण हो जाती है जब तुम कहने लगते हो : बीमारी ही नहीं आती है। फिर: तुम्हें न मालूम क्या क्या कहानियां गढनी पड़ती हैं, झूठी कहानियां! एक झूठ कौ बचाने के लिए हजार झूठ गढ़ने पड़ते हैं।
यह तो बात समझ में आने की है। लोकेन यह बात मूढ़तापूर्ण हो जाती है जब तुम कहने लगते हो : बीमारी ही नहीं आती है। फिर: तुम्हें न मालूम क्या क्या कहानियां गढनी पड़ती हैं, झूठी कहानियां! एक झूठ कौ बचाने के लिए हजार झूठ गढ़ने पड़ते हैं।
तो यह कहानी गढनी पड़ी है जैनों को। क्योंकि यह बात को झुठलाएं कैसे कि
छह महीने महावीर पेचिश की बीमारी सै परेशान रहे? अब इस बात को छिपाये कैसे?
छह महीने उनको दस्त ही लगते रहे। इसी में उनकी मृत्यु हुई। तो कहानी गढनी
पड़ी।
कहानी यह गढी कि गोशालक ने उनके ऊपर तेजोलेश्या छोड़ी। गोशालक ने जादू
किया काला जादू। जैन शास्त्रों में उसका नाम तेजोलेश्या। उसने अपना सारा
क्रोध, अपनी’ क्रोधाग्नि उनके ऊपर फेंक दी। और करुणावश वह उस क्रोधाग्नि को
पचा गये। क्योंकि अगर वापिस भेजे, तो गोशालक मर जाएगा। गोशालक न मरे,
!इसलिए वे पी गये उस तेजोलेश्या को, उस काले जादू को। स्वभावत: जब काला
जादू पीआ, तो पेट खराब हो गया।,
अब क्या कहानी गढनी पड़ी! सीधी सादी बात है ‘कि पेट को बीमारी थी। इसमें
बिचारे गोशालक को फंसाते हो, इसमें तेजोलेश्या की कहानी गढ़ते हो, इसमें
करुणा दिखलाते हो और तुम कहते हो’ तीर्थंकर सर्वशक्तिशाली होता है न् तो
तेजोलेश्या को पचाते तो पूरा ही पचा जाना था, फिर क्या पैट खराब करना
था! पचा ही जाता पूरा! फिर पेट कैसे खराब हुआ? पचा नहीं पाया। नहीं तो पेट
खराब नहीं होना था। पची नहीं तेजोलेश्या।
झूठो से झूठ दबाए नहीं जा सकते।
बुद्ध के सबंध में यही उपद्रव खड़ा हुआ। उनको जो भोजन दिया गया……. एक
गरीब नै उनको निमंत्रित किया और भोजन दिया, भोजन विषाक्त था……अब बुद्ध
विषाक्त भोजन किसे, तो कहानी गढनी पड़ी। क्यौंकि बौद्धों की धारणा कि बुद्ध
तो त्रिकालज्ञ होते हैं, वे तीनों काल जानते हैं, उनको इतना ही नहीं दिखाई
पड़ा कि यह भोजन जो है विषाक्त है, इसको मैं न लूं! अब कैसे इसको छिपाएं?
तो छिपाना पड़ता है। छिपाने के लिए बड़ी तरकीबें खोज ली जाती हैं। कि कहीं
इसको दुख न हो, अगर मैं कहूं कि यह भोजन विषाक्त है तो इस बेचारे ने मुझे
निमंत्रित किया, इसको कहीं दुख न हो, इस कारण बिना कहे विषाक्त भोजन ले
लिया। लेकिन कहो या न कहो, आखिर विषाक्त भोजन का परिणाम तो हुआ ही! और
परिणाम हुआ तो उस आदमी को भी पता चला ही!
क्या मतलब इसका?
मगर वह त्रिकालज्ञ होते हैं, इस धारणा को बचाए रखने के लिए यह झूठी
कहानी गढूनी पड़ी कि दयावश! कि कहीं इसे दुख न हो, इसलिए चुपचाप भोजन कर
लिया जहर पी गये। और सर्वशक्तिमान होते है तो फिर जब जहर पी गये थे तो
विषाक्त नहीं होना था शरीर। लेकिन शरीर तो शरीर के नियम से चलता है। फिर
चाहे बुद्धों का शरीर हो और चाहे बुद्धओं का शरीर हो, इससे कुछ फर्क नहीं
पड़ता। शरीर के अपने नियम हैं। शरीर का अपना गणित है। शरीर प्रकृति का
हिस्सा है। और प्रकृति कोई अपवाद नहीं करती। तो जो परिणाम होना था, वह हुआ।
मृत्यु उससे फलित हुई।
मृत्यु भी होती है, बीमारी भी होती है, बुढ़ापा भी होता है। फिर जो भी
साक्षीभाव को उपलब्ध हो गया है, वह सिर्फ देखता रहता है, उसका कहीं भी ऐसा
तालमेल नहीं बैठ जाता कि मैं बीमार हूं। यह बात उठती नहीं, यह बात जुड़ती
नहीं उसके भीतर। इसलिए बीमारी के बीच भी वह परम स्वस्थ होता है। बीमारी
परिधि पर होती है, केन्द्र पर स्वास्थ्य होता है। और वही स्वस्थ शब्द का
अर्थ भी है. स्वयं में स्थित। बीमारी चारों तरफ रही आए, मगर वह अपने स्वयं
में स्थित होता है; वह अपने स्वयं के केंद्र पर थिर होता है; वहां कुछ
हिलता नहीं, डुलता नहीं; ज्यू था त्युं ठहराया, वह वहीं ठहरा होता है। मौत
भी आती है, वह भी परिधि पर आती है। और केंद्र पर तो वही चिन्मय ज्योति, वही
अमृत झरता रहता है।
मैं इसका गवाह हूं।
दीपक बारा नाम का
ओशो
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