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Thursday, September 24, 2015

‘सर्वं ह पश्य: पश्यति सर्वमाम्नोति सर्वश इति।’

रामकृष्ण के गले का कैंसर था। आखिरी आखिरी दिनों में कुछ सप्ताह तक तो भोजन भी नहीं ले सकते थे। पानी भी पीना अंतिम दिनों में बंद हो गया था। गला बिलकुल अवरुद्ध हो गया था। गला क्या था, घाव हो गया था सिर्फ। उसमें से पानी पीना भी महापीड़ादायी था। और बिना पानी के जीना भी महापीड़ादायी था। विवेकानंद ने रामकृष्ण से कहा कि अगर आप एक बार भी मां काली को कह दें, तो सब अभी ठीक हो जाए। आप कह क्यों नहीं देते? आप क्यों व्यर्थ का दुख झेल रहे हैं? और रामकृष्ण मुस्कुराते। क्योंकि बाहर से तो यही दिखाई पड़ रहा है कि महादुख है, मगर विवेकानंद को भीतर का कुछ भी पता नहीं है। 

रामकृष्ण को भीतर कोई दुख नहीं है। दुख विवेकानंद और रामकृष्ण के बीच में है। विवेकानंद तो बाहर हैं दुख के, रामकृष्ण भी बाहर हैं रामकृष्ण भीतर की तरफ बाहर हैं और विवेकानंद बाहर की तरफ बाहर हैं दोनों को दुख दिखायी पड़ रहा है, दोनों साक्षी हैं। मगर विवेकानंद को स्वभावत: अनुभव होता है कि इतनी पीड़ा है, पानी भी नहीं पी सकते, गर्मी के दिन हैं, प्यास से लोग मरे जा रहे हैं और इनको एक घूंट भी पानी पिलाना मुश्किल है यह कैसा महाकष्ट! ऐसे परमहंस को यह कैसा महाकष्ट!!

इससे विवेकानंद केवल इतनी खबर देते हैं कि अभी उनको साक्षी का अनुभव नहीं हुआ। उनका प्रश्न एक साधारण व्यक्ति का प्रश्न है, जिसको साक्षी का कोई अनुभव नहीं हुआ। यह किसी बुद्धपुरुष का प्रश्न नहीं है हो नहीं सकता। क्योंकि अगर विवेकानंद को साक्षी का अनुभव हुआ होता, तो यह बात उठती ही नहीं।

लेकिन जब रोज रोज विवेकानंद कहने लगे, तो रामकृष्ण सीधे सादे आदमी थे, चोट भी करते थे तो बहुत परोक्ष करते थे, सीधी नहीं करते थे, उन्होंने कहा, ठीक है, तू इतना परेशान हो रहा है, तो आज मैं आख बंद करके काली से कहे देता हूं। आँख बंद की, और फिर खोलकर कहा कि मैंने कहा, मगर काली ने क्या कहा, मालूम?……. अब यह सिर्फ विवेकानंद को समझाने के लिए है। क्योंकि कहां काली! और क्या कहना काली से! साक्षी को जो उपलब्ध हो गया है, उसके लिए काली इत्यादि सब खेल हैं, बच्चों के खेल हैं, खिलौने हैं। यह सब खिलौने हैं। चाहे तुम हनुमान के मंदिर में पूजा करो और चाहे गणेश जी की मूर्ति बनाकर पूजा करो और चाहे काली की मूर्ति बनाओ, ये सब खिलौने हैं नासमझों के लिए। और नासमझों के ही द्वारा निर्मित हो रहे हैं। और नासमझ ही इनके पीछे बड़ा शोरगुल मचाए फिरते हैं। यह कुछ ज्ञानियों की बातें नहीं हैं!…….

पर रामकृष्ण तो उस भाषा में बोले जो विवेकानंद की समझ में आए। कहा कि मैंने कहा, तू नहीं माना तो मैंने कहा काली को; और तुझे पता है, काली ने मुझे बहुत डाटा! विवेकानंद ने कहा, डांटा? कहा कि ही, बहुत डाटा और कहा कि ज्ञानी होकर ऐसी अज्ञानपूर्ण बातें करता है! और काली एकदम नाराज हो गयी और कहने लगी कि चुप, कभी दुबारा इस तरह की बात मत करना! अगर एक कंठ से जल जाना बंद हो गया, तो इतने सारे कंठ उपलब्ध हैं, ये भी तो तेरे ही कंठ हैं इनसे ही जल पी! इस कंठ से तो बहुत काम ले लिया, अब कब तक इसी पर अटका रहेगा? सारे कंठ तेरे हैं। यह विवेकानंद का ही कंठ है, यह भी तेरा है, जब प्यास लगे, इसी कंठ से पी लिये। तो रामकृष्ण ने विवेकानंद से कहा, जब मुझे प्यास लगे, तू पानी पी लिया कर। अब तो सब कंठ मेरे हैं। काली. ने देख, तेरी बात मैंने क्या कही, मुझे बहुत डांटा! इस तरह की बातें अब दुबारा मत कहना! तेरी बात मानकर मैंने कहा और झंझट में मैं पड़ा।

मैं जानता हूं कि यह पूरी की पूरी बात रामकृष्ण सिर्फ विवेकानंद को समझा रहे हैं। न तो काली से उन्होंने कहा है, न कह सकते हैं, न कहने की कोई बात है। न कहने को कोई काली है कहीं। यह सिर्फ ऐसा है जैसे हम छोटे बच्चों को किताब जब पढ़ाना शुरू करते हैं तो कहते हैं. आ आम का, ग गणेश का। और अब थोड़ी  बात बदल गयी है, अब कहते हैं ग गधे का। क्योंकि राज्य जो है हमारा, वह सेक्यूलर है, वह धर्म निरपेक्ष है, इसमें गणेश को लाओ तो धर्म आ जाए, तो ग गधे का! गधा बिलकुल ही निरपेक्ष प्राणी है न हिन्दू न मुसलमान, न ईसाई, न जैन। गधा तो बिलकुल ही पार जा चुका, परमहंस है। उसको कुछ लेना देना नहीं मंदिर से, मस्जिद से। कभी देखो तो मस्जिद के सामने बैठा है, कभी देखो तो मंदिर के सामने बैठा है। उसको सब बराबर तुम उस पर कुरान लादो तो इनकार नहीं, और गीता लादी तो इनकार नहीं। उसको तो ढोना है। वह ढो देगा। वह जरा चिंता नहीं करता कि तुमने किसको उसके ऊपर लाद दिया है!

वह ग गधे का पहली कक्षा में ठीक। फिर गधे को भूल जाना है, ग को याद रखना है। फिर ग किसी का नहीं, न गधे का, न गणेश का, ग सिर्फ ग है। जिस दिन तुम्हारा ‘ग’ गधे से और गणेश से मुक्त हो जाता है, उस दिन तुम समझना कि तुम सीख गये: ग। जब तक वह ग गधे और गणेश से बंधा रहे, तब तक तुमने सीखा नहीं। और अगर हमेशा के लिए बंध जाए, तो तुम पागल हो।

काली है और हनुमान हैं, यह सब पाठ पढ़ाने के लिए ठीक है। मगर लोग इन्हीं के सामने बंधे बैठे हैं। कुछ लोग जो जिंदगीभर हनुमान चालीसा ही पढ़ रहे हैं। इनकी जिंदगी व्यर्थ गयी! निरर्थक गयी! जीवन की सार्थकता साक्षीभाव में है। रामकृष्ण ने वही कहा कि मुझे कोई पीड़ा नहीं हो रही है, तू पी लेना पानी, काम चल जाएगा। मैंने पीआ कि तूने पीआ, सब बराबर है।

‘सर्वं ह पश्य: पश्यति सर्वमाम्नोति सर्वश इति।’

वह सबको आत्मरूप देखता है। जैसे ‘मैं’ गया, सब आत्मरूप हो जाते हैं। और सब कुछ प्राप्त कर लेता है। मैं क्या गंवाया, सब सम्पत्ति मिल गयी। ‘मैं’ के साथ विपत्ति ही विपत्ति है; दुख ही दुख है, नर्क ही नर्क है। तुमने मैं से कभी कोई सुख पाया? तुमने अहंकार से कभी कोई आनंद पाया? मगर अहंकार को भरने के लिए ही दौड़े चले जा रहे हो। इससे बड़ी मूढ़ता इस संसार में दूसरी नहीं है।

और तुम चकित होओगे, शरीर को देखते—देखते शरीर से छुटकारा हो जाता है, मन को देखते देखते मन से छुटकारा हो जाता है। रफ्ता रफ्ता, आहिस्ता आहिस्ता तुम्हारे भीतर एक नयी चीज पैदा होने लगती है, एक नया सूत्र जन्मता है : साक्षी का, सिर्फ द्रष्टा का। और वही द्रष्टा जिस दिन अपनी पराकाष्ठा को पहुंचता है, संबोधि बन जाती है, समाधि बन जाती है। उस दिन दूर रह गये बहुत शरीर और मन, दूर रह गये शरीर और मन के खेल, उस दिन तुम अपनी परमसत्ता में विराजमान हो जाते हो। वहीं परम आनंद है, परम जीवन है।

दीपक बारा नाम का 

ओशो 

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