उनका प्रश्न मूल्यवान है। ऐसी सभी की प्रतीति होगी। क्योंकि समझ के दो
तल हैं। एक तो जो मैं कहता हूं वह आपकी बुद्धि की समझ में आ जाता है, आपकी
बुद्धि को युक्तिपूर्ण लगता है, आपकी बुद्धि को प्रतीत होता है कि ऐसा
होगा।
यह समझ ऊपर ऊपर है। यह समझ प्राण के भीतर तक नहीं उतर सकती। यह समझ आपके
पूरे व्यक्तित्व की समझ नहीं है ,आत्मिक नहीं है। इसलिए ऊपर से समझ में आता
हुआ लगेगा। और जब तक यहां बैठ कर सुन रहे हैं, तब तक ऐसा लगेगा, बिलकुल
समझ में आ गया। फिर यहां से हटेंगे और समझ खोनी शुरू हो जाएगी। क्योंकि जो
समझ में आ गया है, वह जब तक साधा न जाए, तब तक आपके प्राणों का हिस्सा नहीं
हो सकता। जो समझ में आ गया है, जब तक वह आपके खून, मांस, मज्जा में
सम्मिलित न हो जाए, तब तक वह ऊपर से किए रंग रोगन की तरह उड़ जाएगा।
फिर, जो समझ में आ गया है, उसके भीतर आपकी पुरानी सब समझ दबी हुई पडी
है। जैसे ही यहां से हटेंगे, वह भीतर की सब समझ इस नई समझ के साथ संघर्ष
शुरू कर देगी। वह इसे तोड़ने की, हटाने की कोशिश करेगी। इस नए विचार को भीतर
प्रवेश करने में पुराने विचार बाधा देंगे, अस्तव्यस्त कर देंगे; हजार
शंकाएं, संदेह उठाएंगे। और अगर उन शंकाओं और संदेहों में आप खो जाते हैं,
तो वह जो समझ की झलक मिली थी, वह नष्ट हो जाएगी।
एक ही उपाय है कि जो बुद्धि की समझ में आया है, उसे प्राणों की ऊर्जा
में रूपांतरित कर लिया जाए; उसके साथ हम एक तालमेल निर्मित कर लें। हम उसे
साधें भी, वह केवल विचार न रह जाए, वह गहरे में आचार भी बन जाए; न केवल
आचार, बल्कि हमारा अंतस भी उससे निर्मित होने लगे। तो ही धीरे धीरे, जो ऊपर
गया है, वह गहरे में उतरेगा, और साधा हुआ सत्य, फिर आपके पुराने विचार उसे
न तोड़ सकेंगे। फिर वे उसे हटा भी न सकेंगे। बल्कि उसकी मौजूदगी के कारण
पुराने विचार धीरे धीरे स्वयं हट जाएंगे और तिरोहित हो जाएंगे।
अध्यात्म उपनिषद
ओशो
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