एक बार रजनीश बोले, ‘’यार सुखराज, अपन तो ऊब गये है यहां
रहते-रहते। अपन तो चलें कहीं और। ये कहां की झंझट में पड़े है, रोज खाना
खाओ, पानी पीओ, यह करो, वह करो।‘’ सुखराज जी की आंखों में एक चित्र उभर
आया।
‘’मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहां चलने की बात कर रहे है। मैंने पूछा, क्या कह रहे हो यार? कहां चले अपन?’’
रजनीश बोले: अपन तो ऊपर चलते है, वहां बहुत मजा है। बड़े सुंदर महल है और यह है, वह है…..न जाने कितने लालच दिखायें। बोले, ‘’वहां कुछ करना नहीं पड़ता, सब अपने आप हो जाता है। वहां बहुत बढ़िया जगत है।‘’ मेरा मन तो भरमा गया। एक तो हम वैसे ही अक्ल के दुश्मन। और फिर यह रजनीश कब कौन सी बात उठा दे, इसका कोई ठीकाना नहीं। लेकिन मेरे ह्रदय में हमेशा एक भाव था कि तुम जो कह रहे हो, हमे सब स्वीकार है। उनके कहने भर की देर थी कि हम तैयार।
‘’तो इस बात के लिए भी हम तैयार हो गये। लेकिन एक सवाल उठा, ‘’हम दोनों ऊपर चले जायेंगे तो घर वाले क्या करेंगे? वो लोग तो ढूंढा-ढाढ़ी मचायेंगे। परेशान होंगे।
‘’ उसका भी मैंने इंतजाम कर लिया है। ओशो ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहां, ‘’हम यहां डूप्लीकेट सुखराज और डूप्लीकेट रजनीश छोड़ कर जायेगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा कि हम वो ही है कि दूसरे है।‘’
‘’आपके मन में संदेह नहीं उठा कि यह संभव है भी या नहीं? मुझे इन बाल योगियों की योजना में बड़ा रस आ रहा था।
‘’कहां का संदेह साब, रजनीश ने कह दिया इत्ता काफी है। बस, फिर पूरी योजना तैयार हो गई कि कल रात आठ बजे चलना है। इसी जगह ऊपर से कोई दिव्य यान आयेगा। हम दोनों उसमें बैठकर ऊपर चले जायेंगे और पीछे अपने डूप्लीकेट छोड़ जायेंगे।
‘’लेकिन एक शर्त है, भगवान ने कहा, ‘’किसी से कहना नहीं। कह देंगे तो सब बात बिगड़ जायेगी। मैंने कहा, ‘’बिलकुल ठीक। नहीं कहेंगे। लेकिन बात मन में समाई नहीं।‘’ सुखराज जी जोर से हंसते हुए बोले। आज 45 वर्षों के बाद भी उस रहस्य की स्मृति से ही उन्हें गुदगुदी हो रही थी। उसकी स्मृति ही उनके भीतर नहीं समा रही थी। तो वह बात तो क्या समाई होगी। वह उनके भीतर उछलती रही।
‘’ओशो ने ऐसा चक्कर चला दिया था कि मैं बिलकुल अभिभूत हो गया सारी बात से। इतनी बड़ी बात मन में रखना—मेरा तो पेट फूल गया। जैसे-जैसे सुबह हुई। सूरज निकला बात मेरी बरदाश्त के बहार हो रही थी। मज-दतौन कर रहा था। मां चाय बना रही थी। मैंने कहा मां मैं जा रहा हूं…
‘’कहां जा रहे हो? मां चाय में उलझी हुई थी।
‘’यह तो पता नहीं लेकिन मैं जा रहा हूं—सदा के लिए।‘’
‘’क्या ? दिमाग तो खराब नहीं हो गया तेरा?’’
‘’अब अगली बात तो इससे भी रोचक थी। उसे पेट में रखना भी मुश्किल था। वह मैंने उगल दी। सो तू चिंता मत कर मां, मैं डूप्लीकेट सुखराज छोड़ कर जाऊँगा तेरे पास। तू मेरी कमी महसूस नहीं करेगी। मैंने बड़े विश्वास के साथ कहा।‘’
‘’अब तो मां को लगा कि सचमुच पगला गया है। यह लड़का। उसने कोई ध्यान नहीं दिया। खैर साहब, हम ठीक आठ बजे रात को पहुंचे। तो ओशो ने पूछा किसी से कहा तो नहीं? मैंने कहा, सिर्फ मां से कहा है, तब तो मुश्किल हो गई बात, यहीं तो बात खराब कर दी तुने, सब गड बड हो गया। अब जो उपर से जहाज आने वाला था वह नहीं आयेगा। क्योंकि तुने बात कह दी….सब खराब कर दिया।
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नौवीं कक्षा से कुछ विषय आवश्यक हो गए थे, रामपाल सिंह नाम था उसका। उनको बच्चों से बड़ा प्रेम था। वे हमारे खेलकूद के शिक्षक भी थे। अब ड्रॉईंग टीचर को कुछ करना नहीं पड़ता था। आम-इमली बनाना है, और क्या। वो तो कक्षा में आते थे और बोलते थे, सब सिखा देंगे तुमको आखिरी महीने में। रजनीश, इधर आओ और कहानी सुनाओ। अब ड्रॉईंग की क्लास लगी है और रजनीश की कहानी चल रही है। उस समय की जो किताबें थी चंद्रकांता और संतति, भूतनाथ इनको पढ़-पढ कर सुना रहे थे। और उनका स्टाक खत्म हो गया तो अपने ही मन से बना-बना कर सुना रहे थे। क्लास में ऐसे मजे हो रहे थे साहब।‘’
‘’इक्कीस मार्च, 1953 के दिन ओशो के भीतर विस्फोट हुआ और वे बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। चूंकि आप उनसे निकटतम थे, उस घटना के बाद आपको उनमें कोर्इ पर्क दिखाई दिया?
सुखराज जी थोड़ा अंतर्मुखी हुए, ‘’ओशो ने कोई फर्क नहीं मालूम पड़ने दिया। वहीं के वहीं, वैसे के वैसे चल रहा है। इस समय वे खादी की धोती और कुर्ता पहनते थे। ढीली धोती, पीछे से लाँग लगी हुई। और लाँग जमीन पर झूमती हुई जा रही है। अब पीछे मूड कर देखता हुं तो याद आत है, एक अजीबोगरीब रौनक चल रही थी उनके भीतर। उनके भीतर के परिवर्तन का तो कोई पता नहीं, पर अपने एक परिर्वतन के बारे में बतला दूँ। करीब-करीब इसी समय से मैं उनको पैर छूकर प्रणाम करने लगा। हालांकि कह, ‘’भैया’’ ही रहा हूं। दोस्त तो जी ही रहा है। पहले पाँव छू रहा हूं, फिर बगल में बैठकर सिगरेट भी पी रहा हूं। शराब भी पी रहा हूं। लेकिन मुझे लगता है पीछे भी बुद्ध पुरूष हुए होंगे, लेकिन पहचानने का कोई उपाय नहीं है कि यह आदमी बुद्ध हो गया।
अब यहां से ओशो का शिखर ऊपर उठने लगा। उनका भारत भ्रमण शुरू हो गया। जगह-जगह घूमकर प्रवचन करना, लोगों को जगाना, ध्यान-शिविर, यह सब खेल शुरू हुआ।
‘’तो इस दौर में क्या आप दोनों के बीच कुछ दूरी पैदा हो गई?’’
‘’बिलकुल नहीं साहब, छूटते ही सुखराज जी बोले, दुनिया का स्वागत हो न हो, सुखराज का स्वागत तो हो ही रहा था ओशो के पास। अब भैया जबलपुर में प्रोफेसर हो गये थे। मैं जब भी उनसे मिलने जाता—वहीं खनक भरी हंसी, ‘’आओ सुखराज’’ वहीं गले मिलना। हां जब वे यात्रा पर होते तो मिलने-झुलने का सवाल ही नहीं था। लेकिन तब बंबई बहुत आ-जा रहे थे। और मेल गाडरवारा से गुजर ही रही है। जैसे ही पता चला, हम सब काम-काज छोड़कर स्टेशन चले आ रहे है। उनके डिब्बे में बैठकर सफर भी कर रहे है।
क्या बताऊ.., अपनी नादानी में कभी-कभी ऐसा कष्ट दिया है ओशो को। वो गाडरवारा से जाना चाह रहे है। उन्हें जबर्दस्ती रोक लिया, यार दोस्तों की महफिल में बिठा लिया। हम मो दोस्त ही मान कर चल रहे थे। यह देख ही नहीं रहे थे कि चह कोई दूसरा आदमी हो गया है। और वो हमारी बात मानते थे इसलिए लोग हमें ही आगे कर देते थे। लेकिन वो ऐसे क्षमावान है कि हमें कभी हमारी नासमझी का अहसास नहीं दिलाया।‘’
खुदा जब दोस्त बन कर आता है तो उस दोस्ती की जलवानुमाई का क्या कहिए। उस दोस्ती के पारस स्पर्श से खुदी खुदाई बन जाती है। बचपन का दोस्त रजनीश आचार्य बन चुका था और ओशो बनने की देहरी पर खड़ा था। लेकिन यह वैश्विक उड़ान भरने से पहले वह अपने शैशव काल के मुँहबोले हमराज़ को इस दौर में भी अपना हमसफर बनाना चाहता था। यह वीं प्रेम सगाई थी जिससे बंध कर कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी मेवे त्याग कर विदुर की झोपड़ी में साग रोटी खायी थी
क्रमश अगली पोस्ट में……
सुखराज
‘’मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहां चलने की बात कर रहे है। मैंने पूछा, क्या कह रहे हो यार? कहां चले अपन?’’
रजनीश बोले: अपन तो ऊपर चलते है, वहां बहुत मजा है। बड़े सुंदर महल है और यह है, वह है…..न जाने कितने लालच दिखायें। बोले, ‘’वहां कुछ करना नहीं पड़ता, सब अपने आप हो जाता है। वहां बहुत बढ़िया जगत है।‘’ मेरा मन तो भरमा गया। एक तो हम वैसे ही अक्ल के दुश्मन। और फिर यह रजनीश कब कौन सी बात उठा दे, इसका कोई ठीकाना नहीं। लेकिन मेरे ह्रदय में हमेशा एक भाव था कि तुम जो कह रहे हो, हमे सब स्वीकार है। उनके कहने भर की देर थी कि हम तैयार।
‘’तो इस बात के लिए भी हम तैयार हो गये। लेकिन एक सवाल उठा, ‘’हम दोनों ऊपर चले जायेंगे तो घर वाले क्या करेंगे? वो लोग तो ढूंढा-ढाढ़ी मचायेंगे। परेशान होंगे।
‘’ उसका भी मैंने इंतजाम कर लिया है। ओशो ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहां, ‘’हम यहां डूप्लीकेट सुखराज और डूप्लीकेट रजनीश छोड़ कर जायेगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा कि हम वो ही है कि दूसरे है।‘’
‘’आपके मन में संदेह नहीं उठा कि यह संभव है भी या नहीं? मुझे इन बाल योगियों की योजना में बड़ा रस आ रहा था।
‘’कहां का संदेह साब, रजनीश ने कह दिया इत्ता काफी है। बस, फिर पूरी योजना तैयार हो गई कि कल रात आठ बजे चलना है। इसी जगह ऊपर से कोई दिव्य यान आयेगा। हम दोनों उसमें बैठकर ऊपर चले जायेंगे और पीछे अपने डूप्लीकेट छोड़ जायेंगे।
‘’लेकिन एक शर्त है, भगवान ने कहा, ‘’किसी से कहना नहीं। कह देंगे तो सब बात बिगड़ जायेगी। मैंने कहा, ‘’बिलकुल ठीक। नहीं कहेंगे। लेकिन बात मन में समाई नहीं।‘’ सुखराज जी जोर से हंसते हुए बोले। आज 45 वर्षों के बाद भी उस रहस्य की स्मृति से ही उन्हें गुदगुदी हो रही थी। उसकी स्मृति ही उनके भीतर नहीं समा रही थी। तो वह बात तो क्या समाई होगी। वह उनके भीतर उछलती रही।
‘’ओशो ने ऐसा चक्कर चला दिया था कि मैं बिलकुल अभिभूत हो गया सारी बात से। इतनी बड़ी बात मन में रखना—मेरा तो पेट फूल गया। जैसे-जैसे सुबह हुई। सूरज निकला बात मेरी बरदाश्त के बहार हो रही थी। मज-दतौन कर रहा था। मां चाय बना रही थी। मैंने कहा मां मैं जा रहा हूं…
‘’कहां जा रहे हो? मां चाय में उलझी हुई थी।
‘’यह तो पता नहीं लेकिन मैं जा रहा हूं—सदा के लिए।‘’
‘’क्या ? दिमाग तो खराब नहीं हो गया तेरा?’’
‘’अब अगली बात तो इससे भी रोचक थी। उसे पेट में रखना भी मुश्किल था। वह मैंने उगल दी। सो तू चिंता मत कर मां, मैं डूप्लीकेट सुखराज छोड़ कर जाऊँगा तेरे पास। तू मेरी कमी महसूस नहीं करेगी। मैंने बड़े विश्वास के साथ कहा।‘’
‘’अब तो मां को लगा कि सचमुच पगला गया है। यह लड़का। उसने कोई ध्यान नहीं दिया। खैर साहब, हम ठीक आठ बजे रात को पहुंचे। तो ओशो ने पूछा किसी से कहा तो नहीं? मैंने कहा, सिर्फ मां से कहा है, तब तो मुश्किल हो गई बात, यहीं तो बात खराब कर दी तुने, सब गड बड हो गया। अब जो उपर से जहाज आने वाला था वह नहीं आयेगा। क्योंकि तुने बात कह दी….सब खराब कर दिया।
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नौवीं कक्षा से कुछ विषय आवश्यक हो गए थे, रामपाल सिंह नाम था उसका। उनको बच्चों से बड़ा प्रेम था। वे हमारे खेलकूद के शिक्षक भी थे। अब ड्रॉईंग टीचर को कुछ करना नहीं पड़ता था। आम-इमली बनाना है, और क्या। वो तो कक्षा में आते थे और बोलते थे, सब सिखा देंगे तुमको आखिरी महीने में। रजनीश, इधर आओ और कहानी सुनाओ। अब ड्रॉईंग की क्लास लगी है और रजनीश की कहानी चल रही है। उस समय की जो किताबें थी चंद्रकांता और संतति, भूतनाथ इनको पढ़-पढ कर सुना रहे थे। और उनका स्टाक खत्म हो गया तो अपने ही मन से बना-बना कर सुना रहे थे। क्लास में ऐसे मजे हो रहे थे साहब।‘’
‘’इक्कीस मार्च, 1953 के दिन ओशो के भीतर विस्फोट हुआ और वे बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। चूंकि आप उनसे निकटतम थे, उस घटना के बाद आपको उनमें कोर्इ पर्क दिखाई दिया?
सुखराज जी थोड़ा अंतर्मुखी हुए, ‘’ओशो ने कोई फर्क नहीं मालूम पड़ने दिया। वहीं के वहीं, वैसे के वैसे चल रहा है। इस समय वे खादी की धोती और कुर्ता पहनते थे। ढीली धोती, पीछे से लाँग लगी हुई। और लाँग जमीन पर झूमती हुई जा रही है। अब पीछे मूड कर देखता हुं तो याद आत है, एक अजीबोगरीब रौनक चल रही थी उनके भीतर। उनके भीतर के परिवर्तन का तो कोई पता नहीं, पर अपने एक परिर्वतन के बारे में बतला दूँ। करीब-करीब इसी समय से मैं उनको पैर छूकर प्रणाम करने लगा। हालांकि कह, ‘’भैया’’ ही रहा हूं। दोस्त तो जी ही रहा है। पहले पाँव छू रहा हूं, फिर बगल में बैठकर सिगरेट भी पी रहा हूं। शराब भी पी रहा हूं। लेकिन मुझे लगता है पीछे भी बुद्ध पुरूष हुए होंगे, लेकिन पहचानने का कोई उपाय नहीं है कि यह आदमी बुद्ध हो गया।
अब यहां से ओशो का शिखर ऊपर उठने लगा। उनका भारत भ्रमण शुरू हो गया। जगह-जगह घूमकर प्रवचन करना, लोगों को जगाना, ध्यान-शिविर, यह सब खेल शुरू हुआ।
‘’तो इस दौर में क्या आप दोनों के बीच कुछ दूरी पैदा हो गई?’’
‘’बिलकुल नहीं साहब, छूटते ही सुखराज जी बोले, दुनिया का स्वागत हो न हो, सुखराज का स्वागत तो हो ही रहा था ओशो के पास। अब भैया जबलपुर में प्रोफेसर हो गये थे। मैं जब भी उनसे मिलने जाता—वहीं खनक भरी हंसी, ‘’आओ सुखराज’’ वहीं गले मिलना। हां जब वे यात्रा पर होते तो मिलने-झुलने का सवाल ही नहीं था। लेकिन तब बंबई बहुत आ-जा रहे थे। और मेल गाडरवारा से गुजर ही रही है। जैसे ही पता चला, हम सब काम-काज छोड़कर स्टेशन चले आ रहे है। उनके डिब्बे में बैठकर सफर भी कर रहे है।
क्या बताऊ.., अपनी नादानी में कभी-कभी ऐसा कष्ट दिया है ओशो को। वो गाडरवारा से जाना चाह रहे है। उन्हें जबर्दस्ती रोक लिया, यार दोस्तों की महफिल में बिठा लिया। हम मो दोस्त ही मान कर चल रहे थे। यह देख ही नहीं रहे थे कि चह कोई दूसरा आदमी हो गया है। और वो हमारी बात मानते थे इसलिए लोग हमें ही आगे कर देते थे। लेकिन वो ऐसे क्षमावान है कि हमें कभी हमारी नासमझी का अहसास नहीं दिलाया।‘’
खुदा जब दोस्त बन कर आता है तो उस दोस्ती की जलवानुमाई का क्या कहिए। उस दोस्ती के पारस स्पर्श से खुदी खुदाई बन जाती है। बचपन का दोस्त रजनीश आचार्य बन चुका था और ओशो बनने की देहरी पर खड़ा था। लेकिन यह वैश्विक उड़ान भरने से पहले वह अपने शैशव काल के मुँहबोले हमराज़ को इस दौर में भी अपना हमसफर बनाना चाहता था। यह वीं प्रेम सगाई थी जिससे बंध कर कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी मेवे त्याग कर विदुर की झोपड़ी में साग रोटी खायी थी
क्रमश अगली पोस्ट में……
सुखराज
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