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Saturday, September 19, 2015

क्षुद्र ऊर्जा - विराट ऊर्जा

एक सूफी फकीर के पास एक युवक ने आकर कहा कि ‘बहुत बहुत संतों के पास गया हूं लेकिन जिसकी तलाश है वह नहीं मिलता। अब आखिरी आपके द्वार पर दस्तक दी है। बस हताश हो गया हूं बहुत लोगों ने आपकी तरफ इशारा किया। बड़ी लंबी यात्रा करके, बड़े दूर देश से आता हूं। निराश न भेज देना। और यह मेरा अंतिम प्रयास है। कुछ होना हो तो हो जाये। न होना हो, तो न हो। बस, मैं हारे गया हूं।’

उस फकीर ने कहा, ‘जरूर होगा। को नही होगा! लेकिन एक छोटीसी शर्त पूरी करनी पड़ेगी। शर्त बहुत छोटी है।’

उस युवक ने कहा, ‘मैंने बडी बड़ी शर्तें पूरी की। किसी ने योग सिखाया, सिर के बल खड़ा किया, तो’ खडा रहा। किसी ने मंत्र पढूवाए, तो वर्षों मंत्र दोहराता रहा। किसी ने उपवास करवाए, तो उपवास किये; भूखा मरा। जिसने, जो कहा, वही किया। ऐसी कोनसी शर्त होगी, जो मैंने मूर्त नहीं की! तुम भी अपनी छोटी शर्त कह दो। जरूर पूरी करूंगा।’

उस फकीर ने कहा, ‘ये सब बड़ी बड़ी बातें हैं। ये मुझे नहीं करनी हैं। बहुत छोटी शर्त है। अभी मैं कुंए पर रहनी भरने जा रहा हूं। बस, तू इतना करना कि जब मैं पानी भरूं, .तो बीच में बोलना मत। चुपचाप खड़े रहना। इतना अगर संयम तूने रख लिया, तो बस बहुत है। फिर आगे का काम मैं सम्हाल लूंगा। इतना तू कर ले।’

उस युवक ने सोचा कि मैं भी किस आदमी के पास आ गया हू! बडे तत्र साधे, मंत्र साधे, यंत्र साधे। और यह पागल मालूम होता है। यह कुंए पर पानी भला, तो भर मजे से! मेरा क्‍या बनता बिगड़ता है! मैं क्यों बोलूंगा?

लेकिन उसे पता न था। कुंए पर पानी भरना तो दूर, जब फकीर ने अपनी बालटी उठायी और रस्सी उठायी., तभी उसके भीतर झंझावात उठने लगे। लेकिन अपने को सम्हाला। याद रखा कि उसने कहा है कि बोलना ही मत।’मगर न रहा जाये! फिर भी अपने पर संयम रखा। पुराना संयमी था। लंबा अभ्यासी था। .अपनी जबान को कसकर पकड़े रहा। होठों को बंद रखा। इधर उधर देखा कि देखो ही मत। न देखोगे, न प्रश्न उठेगा। और थोडी ही दैर की बात है।

कुंए पर फकीर पहुंचा। उसने बालटी में रस्सी बांधी। युवक यहां वहां देखे। फकीर ने कहा: ‘यहां वहा देखने की जरूरत नहीं। जो मैं कर रहा हूं उसको देख और चुपचाप खड़ा रह, बोलना मत। प्रश्न उठाना मत। इतनी शर्त तू पूरी कर देना, बाकी मैं सब पूरी कर लूंगा।’

युवक को देखना पड़ा। मगर उसकी बेचैनी तुम नहीं समझ सकते। उसकी मुसीबत तुम नहीं समझ सकते। जो देख रहा था, उसे देखकर बिना बोले रहा न जाता था।

फकीर ने रस्सी बांधी। बालटी कुंए में डाली। बड़ा हिलाया डुलाया बालटी को। बडा शोरगुल मचाया कुंए में। पानी मैं डूबो रही बालटी, तो भरी हुई मालूम’ पड़ी। फिर खींची, तो खाली की खाली आयी! फिर दुबारा डाली’! संयम टूटने लगा युवक का। जब तीसरी बार बालटी डाली, युवक ने कहा, ‘ठहरो! संयम टूटने लगा युवक का। जब तीसरी बार बालटी डाली, ‘युवक ने कहा ठहरो! भाड़ में गया ब्रह्मज्ञान! इस बालटी में पेंदी ही नहीं है, और तुम पानी भरने चले हो! आखिर संयम की भी एक हद्द होती है! कब तक साधू? और यह संयम तो ऐसा है कि जन्म कम बीत जायेंगे, पानी भरनेवाला नहीं। यह बालटी खाली रहनेवाली है। और तुमने मुझसे वचन लिया है कि जब तक पाना न भर लूँ बोलना मत। मैं तो बोलूंगा। और तुमसे कहे देता हूं कि तुमसे क्‍या खाक मुझे मिलेगा। अभी तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है कि बिना पेंदी की बाल्टी में पानी भरने चले हो! तुम क्या मुझे ब्रह्मज्ञान दोगे!’

फकीर ने कहा, ‘बात खतम हो गयी। नाता रिश्ता टूट गया। शर्त ही खतम हो गयी। जब तू छोटा सा भी’ काम पुरा न कर सका। अरे बस, यह आखिरी बार था। तीन बार का मैंने तय किया था। मगर तू चूक गया। तीन ही बार पूरे न हो पाये और तुने संयम छोड़ दिया! रास्ते पर लग अपने। ऐसे आदमी से क्या होगा जिसमें इतना धीरज नहीं! भाग। यह तो मुझे भी पता है कि बालटी में पेंदी नहीं है। मैं कोई अंधा हूं! बालटी में पानी नहीं भरेगा, यह भी मुझे पता है। यह तो तेरी धीरज की परोक्षा थी। मगर तू असफल हो गया। अब मैं जानता हूं कि क्यों तू अब तक हताश है। तू सदा हताश रहेगा। एक छोटा सा काम न कर सका! भाग जा। अब यह शकल मुझे मत दिखा।’

युवक चला तो, लेकिन अब बड़ी बेचैनी में पड़ गया। बात तो ठीक थी। फकीर पागल नहीं था। कुछ बेबूझ था। सो फकीर सदा हुए हैं। फकीर, और बेबूझ न हो, तो क्या खाक फकीर! फकीर और कुछ रहस्यपूर्ण न हो, तो क्या खाक फकीर; पंडित होते हैं तर्क शुद्ध; फकीर तो तर्क शुद्ध नहीं होते; रहस्यमय होते हैं; पहेली की तरह होते हैं।

‘मैंने भी क्या चूक कर दी! जरासी देर और रुक जाता, जरासी देर की बात थी और पता नहीं यह आदमी क्या खाक जानता हो! जानता जरूर होगा। क्योंकि ऐसी परीक्षा मेरी कभी किसी ने कभी ली न थी।’ रातभर सो न सका। सुबह ही उठकर पहुंच गया। अंधेरे अंधेरे पहुंच गया। फकीर के द्वार पर सिर पटककर पड़ रहा और कहा कि ‘मैं हटूंगा नहीं यहां से। मुझसे भूल हो गयी, मुझे क्षमा कर दो। एक अवसर और दो।’

फकीर ने कहा, ‘क्या भूल हो गयी?’ उसने कहा, ‘यही कि मुझे क्या लेना था! दिखता था मुझे कि बिना पेंदी की बालटी में पानी भरेगा नहीं। मुझे बोलना नहीं था। चुप खड़े रहता। वायदा किया था, पूरा करना था। मैं वायदे से स्मृत हुआ।’

फकीर ने कहा, ‘अगर इतना तुझे दिखाई पड़ गया कि बिना पेंदी की बालटी में पानी नहीं भरता, तो मैं तुझसे कहना चाहता हूं कि तेरे भीतर भी पेंदी नहीं है, इसलिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं होती। ऊर्जा इकट्ठी न हो, तो तू कैसे ब्रह्म को जानेगा? ब्रह्म को जानने के लिए ऊर्जा चाहिए ऐसी ऊर्जा कि ऊपर से बह उठे, अतिरेक चाहिए।’

तुम्हारे भीतर ऊर्जा हो, तो परमात्मा की ऊर्जा भी तुम्हारी ऊर्जा में संयुक्त हो जाती है। तुम्हारे जीवन में यूं आग लग जाती है, जैसे जंगल में आग लगी हो। छोटा मोटा दीया हो, तो जरा सा हवा का झोंका और उसे बुझा जाता है। इसे स्मरण रखना।

क्षुद्र ऊर्जा से नहीं चलेगा, विराट ऊर्जा चाहिए। आकाश की यात्रा पर निकले हो, ईधन तो चाहिए ही चाहिए। पंखों में बल चाहिए।

अनहद में बिसराम

ओशो 

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