भारत में बहुत पुरानी ग्रामीण परंपरा है। अभी भी कुछ लोग गांव में मिल
जाएंगे। अगर तुम्हें कभी कोई आदमी मिले जिसका नाम हो कनछेदी लाल, या जिसका
नाम हो नत्थूलाल, तो तुम पूछना कि यह नाम क्यों रखा गया? जिन घरों में
बच्चे मर जाते हैं, दो चार बच्चे हुए और मर गए, तो बहुत पुरानी परंपरा है
कि फिर जो बच्चा पैदा हो, तत्क्षण या तो उसकी नाक छेद दो या कान छेद दो।
अगर नाक छेदा तो उसका नाम नत्थूलाल, कान छेदा तो उसका नाम कनछेदी लाल।
और यह बात बड़ी अनुभव की है कि फिर नाक या कान छेदने के बाद बच्चे नहीं
मरते। उनकी जीवन-ऊर्जा में कुछ बुनियादी अंतर आ जाता है। बच्चा बच जाता है।
यह हजारों सालों के अनुभव के बाद लोगों ने धीरे-धीरे प्रयोग खोजा है।
अब तो इस पर रूस में बड़ी खोज हुई है। और किरलियान फोटोग्राफी ने बड़े
महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं, कि मनुष्य के शरीर में जो विद्युत का
प्रवाह है, सारा खेल स्वास्थ्य का, बीमारी का, जन्म का, मरण का, उस विद्युत
के प्रवाह पर निर्भर है। और उस प्रवाह को कुछ बिंदुओं से बदला जा सकता है।
उस प्रवाह के मार्ग को रूपांतरित किया जा सकता है। उस प्रवाह को एक तरफ
जाने से रोका जा सकता है, दूसरी तरफ ले जाया जा सकता है।
आक्युपंक्चर की सारी कला यही है कि जब कोई आदमी बीमार होता है, तो
किन्हीं शरीर के खास बिंदुओं पर वे गर्म सुई चुभोते हैं। और जरा सा सुई का
चुभन, और भीतर की विद्युत धारा बदल जाती है। उस विद्युत धारा के बदलने से
सैकड़ों बीमारियां तिरोहित हो जाती हैं। चीन में तो कोई पांच हजार सालों से
वे इसका प्रयोग करते हैं। उन्होंने जो शरीर में माने हैं बिंदु, अब तो
विज्ञान ने भी स्वीकृति दे दी है कि वे बिंदु हैं। और यह भी स्वीकार हो गया
है–रूस में कम से कम! और रूस के तो अस्पतालों में भी आक्युपंक्चर का
प्रयोग शुरू हो गया है। और अब तो उन्होंने यंत्र भी खोज लिए हैं कि मरीज को
वे यंत्र में खड़ा कर देते हैं। तो जैसे एक्स-रे से पता चलता है कि भीतर
कहां खराबी है, उस यंत्र से पता चलता है कि शरीर में घूमने वाली इलेक्ट्रिक
करंट कहां बीमार पड़ गयी है। तो जहां बीमार पड़ गयी है वहां इलेक्ट्रिक का
शाक उसे देते हैं। इलेक्ट्रिक का शाक देते ही विद्युतधारा प्रवाहित हो जाती
है और बीमारी तिरोहित हो जाती है।
कान छेदना, नाथ-संप्रदाय के योगियों ने बड़े महत्वपूर्ण शाक की तरह खोजा
था। वह शाक था। इस तरह के शाक बहुत तरह खोजे गए हैं। तुम्हें पता है कि
यहूदी और मुसलमान खतना करते हैं। वह खतना भी इसी तरह का शाक है और बड़ा
महत्वपूर्ण है। यहूदी तो, बच्चा पैदा होता है, उसके चौदह दिन के भीतर उसका
खतना करते हैं। और जननेंद्रिय के ऊपर की चमड़ी को काट कर अलग कर देते हैं।
इस संबंध में बहुत अध्ययन चलता आ रहा है कि इससे क्या लाभ होते होंगे?
और लाभ प्रगाढ़ मालूम होते हैं। क्योंकि यहूदियों से ज्यादा प्रतिभाशाली कौम
खोजना कठिन है। उनकी संख्या तो थोड़ी है, लेकिन जितनी नोबल-प्राइज यहूदी ले
जाते हैं, उतनी कोई दूसरी जाति नहीं ले जाती। और यहूदी जिस दिशा में भी
काम करेगा, हमेशा अग्रणी हो जाएगा। आगे पहुंच जाएगा। दूसरों को पीछे खदेड़
देगा। यहूदी के पास प्रतिभा तो ज्यादा मालूम पड़ती है।
इस सदी में जिन लोगों ने बड़े प्रभाव पैदा किए हैं वे सब यहूदी हैं।
कार्ल माक्र्स, सिगमन फ्रायड और अलबर्ट आइंस्टीन, तीनों यहूदी हैं। और इन
तीनों ने इस सदी को निर्मित किया है। और यहूदियों ने जितने प्रगाढ़ विचारक
पैदा किए हैं, वैज्ञानिक पैदा किए हैं, किसी ने पैदा नहीं किए। उनका कोई
मुकाबला नहीं है। और अभी इस संबंध में विचार शुरू हुआ है कि हो सकता है,
चौदह दिन के भीतर जो खतना किया जाता है, उसका कुछ न कुछ गहरा संबंध प्रतिभा
से है।
मुसलमान वह नहीं कर पाए, क्योंकि वे खतना बड़ी देर से करते हैं। यहूदियों
का खयाल है कि चौदह दिन के भीतर बच्चे को जो पहला शाक मिलता है–क्योंकि
खतना जननेंद्रिय की चमड़ी का किया जाता है–तो पहला शाक जननेंद्रिय के पास जो
इकट्ठी ऊर्जा है, जो विद्युत-ऊर्जा है, उसको लगता है। और वह शाक इतना गहरा
है कि वह विद्युत-ऊर्जा उस जगह से हट कर सीधी मस्तिष्क पर चोट करती है। और
छोटे बच्चे को वह जो चोट है, सदा के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है। उसकी
जीवन-धारा बदल जाती है।
एक ओमकार सतनाम
ओशो
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