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Tuesday, September 15, 2015

ओशो कुंडलिनी ध्‍यान


      यह सक्रिय ध्‍यान का अति प्रिय सहयोगी ध्‍यान है। इसमें पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चारण है। यह ध्‍यान ओशो के निर्देशन में तैयार किए गए संगीत के साथ किया जा सकता है। यह संगीत ऊर्जा गत रूप से ध्‍यान में सहयोगी होता है और ध्‍यान विधि के हर चरण की शुरूआत को इंगित करता है संगीत की सीड़ीज़ ( ) से डाउनलोड कर सकते है।

प्रथम चरण: पंद्रह मिनट
      शरी को ढीला छोड़ दें और पूरे शरीर को सहयोग दे कंपन उठने के लिए।  और अनुभव करे की ऊर्जा आपके पाँव से उठकर ऊपर की और बढ़ रही है। सब और से नियंत्रण छोड़ दें और कंपना ही हो जाए। आपकी आंखें खुली भी रह सकती है और बंद भी।
दूसरा चरण: पंद्रह मिनट
      नाचे—जैसा आपको भाय, और शरीर को जैसा वह चाहे, गति करने दें। नृत्‍य शरीर पर बहने दे और उसे ह्रदय से ग्रहण करे।

तीसरा चरण: पंद्रह मिनट
      आंखे बंद कर लें और निश्‍चल बैठ जाएं या खड़े रहें.......भीतर या बहार जो भी हो रहा है, उसके साक्षी बने रहे। मधुर संगीत को सुने केवल कानों से नहीं पूरे शरीर से। अपने पूरे शरीर पर संगीत को बरसने दे। जितना खुला छोड़ सकेत है, छोड़े, एक ध्‍वनि भ अछूती न रह जाये, संगीत आपके साये हिस्सों को छूकर संवेदनशील कर देगा। धीर-धीरे आपकी सजगता बढ़ती चली जायेगी। सजगता के साथ संवेदना भी बढ़े इस आप पत्‍थर नहीं एक पिघलती हुई बर्फ बने.......ताकी संगीत आपको तरल कर सके।
चौथा चरण: पंद्रह मिनट
      आंखें बंद कर के लेट जाये, शरीर पर कोई हरकत न होने दे। निश्‍चल लेटे रहे। और देखते रहे।
जब तुम कुंडलिनी ध्‍यान करो तो कंपन को होने दो, उसे करो मत। शांत खड़े हो जाओ। कंपन को उठता महसूस करो। और जब तुम्‍हारा शरीर थोड़ा कांपने लगे तो उसको सहयोग करो, परंतु उसे स्‍वयं से मत करो। उसका आनंद लो, उससे आह्लादित होओ उसे आने दो, उसे ग्रहण करो, उसका स्‍वागत करो, परंतु उसकी इच्‍छा मत करो।
      यदि तुम इसे आरोपित करोगे तो यह एक व्‍यायाम बन जाएगा। एक शारीरिक व्‍यायाम बन जाएगा। फिर कंपन तो होगा लेकिन बस ऊपर-ऊपर, वह तुम्‍हारे भीतर प्रवेश नहीं करेगा। भीतर तुम पाषाण की भांति, चट्टान की भांति ठोस बने रहोगे। नियंत्रक और कर्ता तो तुम ही रहोगे। शरीर बस अनुसरण करेगा। प्रश्‍न शरीर का नहीं है। प्रश्‍न हो तुम।
      तब मैं कहता हूं कंपो, तो मेरा अर्थ है तुम्‍हारे ठोसपन और तुम्‍हारे पाषाण वत प्राणों को जड़ों तक कंप जाना चाहिए ताकि वे जलवत तरल होकर पिघल जाए। प्रवाहित वान बन जाए। उनमें एक गति आ जाये। उनमें एक बहाव पैदा हो जाये। वह थोड़ा जीवित हो सके। वह थोड़ा प्रवाहित हो सके। और जब पाषाण वत प्राण तरल होगें तो तुम्‍हारा शरीर अनुसरण करेगा। फिर कंपाना नहीं पड़ेगा। बस कंपन रह जाता है। फिर कोई उसे करने वाला नहीं है, वह बस हो रहा है। फिर कर्ता नहीं रहा।
ओशो
ध्‍यान योग: प्रथम और अंतिम मुक्‍ति

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