सिकंदर जब डायोजनीज को मिला तो डायोजनीज ने एक बड़ा मजाक किया। उसने कहा,
“सिकंदर! यह भी तो सोच कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा तो बड़ी मुश्किल में
पड़ जायेगा।’ सिकंदर ने कहा, “क्यों?’ तो डायोजनीज ने कहा, “फिर इसके बाद
दूसरी कोई दुनिया नहीं है।’ और कहते हैं, यह सोचकर ही सिकंदर उदास हो गया।
उसने कहा, “मैंने इस पर कभी विचार नहीं किया। लेकिन तुम ठीक कहते हो। सारी
दुनिया जीतकर फिर मैं क्या करूंगा! फिर तो वासना अधर में लटकी रह जायेगी।
फिर तो अतृप्ति अधर में लटकी रह जायेगी। फिर तो छाती पर अतृप्ति का पत्थर
सदा के लिए रखा रह जायेगा। क्योंकि और तो कुछ पाने को नहीं है, लेकिन पाने
की आकांक्षा थोड़े ही समाप्त होती है।’
इसलिए बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर है। इसे कोई कभी भर नहीं पाया। नहीं कि संसार में भरने के साधन नहीं हैं; पर तृष्णा का स्वभाव दुष्पूर है। इस तृष्णा को जब हम थका-थका पाते हैं संसार में और भर नहीं पाते तो हम प्रभु की ओर मुड़ते हैं। प्रभु की ओर मुड़ना तो ठीक, लेकिन मुड़ने का कारण गलत होता है।
प्रभु की ओर मुड़कर धीरे-धीरे तुम्हें समझ में पड़ेगा कि तुम्हारी आंखों में तो पुरानी वासना ही भरी है। तुम परमात्मा से भी वही मांग रहे हो जो तुमने संसार से मांगा था। तो तुम मुड़े तो जरूर, शरीर तो मुड़ गया, एक सौ अस्सी डिग्री मुड़ गया–लेकिन आत्मा नहीं मुड़ी।
जिनसूत्र
ओशो
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