Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Friday, September 11, 2015

न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चला गया! चाहता था योग से शक्ति, यहां समझने को मिली शांति। चाहता था धर्म से प्रभुता, यहां समझने को मिली शून्यता। कुछ निर्णय नहीं कर पाता हूं। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। यह यात्रा न मालूम कहां जाकर रुकेगी। पुराना विश्वास बिखर चुका है, नये का जन्म नहीं हो रहा। अब न पीछे जा सकता हूं और न आगे ही बढ़ पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन दें!

धर्म की खोज में निकलनेवाले लोग अकसर किसी और चीज की खोज में निकलते हैं–उस खोज को धर्म का नाम दे देते हैं।

शक्ति की खोज धर्म की खोज नहीं है। शक्ति की खोज तो अहंकार की ही खोज है। शक्तिशाली होने की आकांक्षा धर्म-विरोधी है।

लेकिन अधिक लोग धर्म की यात्रा पर किन्हीं गलत कारणों से निकलते हैं; जो संसार में नहीं मिल सका, उसी को खोजने परमात्मा में जाते हैं।

जो संसार में नहीं मिल सका, उसे खोजने परमात्मा में मत जाना। क्योंकि जो संसार में ही नहीं है, वह परमात्मा में तो हो ही नहीं सकता। जिसे तुम संसार में न पा सके, उसे तो समझ लेना कि पाने का कोई उपाय ही नहीं है।

शक्ति हम चाहते ही इसीलिए हैं कि किसी दूसरे से बलशाली हो जायें, कि किसी दूसरे की छाती पर बैठ जायें, कि किसी दूसरे को दबा लें, कि किसी दूसरे को छोटा कर दें। शक्ति का अर्थ ही महत्वाकांक्षा है। वह अहंकार का ज्वर है।

धर्म तो शांति की खोज है। शांति का अर्थ है: शक्ति की खोज व्यर्थ है, इस बात का बोध; और शक्ति की खोज से मैं सदा बीमार रहूंगा, स्वस्थ न हो पाऊंगा।

शांति की खोज बिलकुल विपरीत है। शांति की खोज का अर्थ है: मैं इस “मैं’ को भी गिराता हूं, जिसमें शक्ति की आकांक्षा पैदा होती है; मैं इस बीज को दग्ध करता हूं। इसने मुझे तड़फाया, जन्मों-जन्मों तक भटकाया।

बुद्ध ने, जब उन्हें परम ज्ञान हुआ तो आकाश की तरफ आंखें उठाकर कहा, “हे गृहकारक! हे तृष्णा के गृहकारक! अब तुझे मेरे लिए और कोई घर न बनाना पड़ेगा। बहुत तूने घर बनाए मेरे लिए, लेकिन अब मैं आखिरी जाल से मुक्त हो गया हूं। अब और मेरे लिए जन्म न होंगे।’

जहां महत्वाकांक्षा न रही, तृष्णा न रही, वहां और जन्म न रहे। जहां महत्वाकांक्षा न रही, वहां भविष्य न रहा, समय न रहा; वहां हम शाश्वत में प्रवेश करते हैं।

शाश्वत में प्रवेश होने से जो अनुभव होता है उसी का नाम शांति है। समय में दौड़ने से जो अनुभव होता है उसी का नाम अशांति है। आज से कल, कल से परसों! जहां हम होते हैं वहां कभी नहीं होते: अशांति का यही अर्थ है। जो हम होते हैं उससे हम कभी राजी नहीं होते–कुछ और होना चाहिए! हमारी मांग का पात्र कभी भरता नहीं। हमारा भिक्षापात्र खाली का खाली रहता है: कुछ और! कुछ और! कुछ और!

तृप्ति तो असंभव है, क्योंकि जो भी मिलेगा उससे ज्यादा मिलने की कल्पना तो हम कर ही सकते हैं। जो भी मिल जायेगा उससे ज्यादा भी हो सकता है, इसकी वासना तो हम जगा ही सकते हैं।

क्या तुम सोचते हो ऐसी कोई घड़ी हो सकती है वासना के जगत में, जहां तुम ज्यादा की कल्पना न कर सको? ऐसी तो कोई घड़ी नहीं हो सकती। सारा संसार मिल जाए तो भी मन कहेगा: और चांदत्तारे पड़े हैं!

जिनसूत्र 

ओशो 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts