जब दो शरीर के बीच आकर्षण होता है तो काम; जब दो मनों के बीच आकर्षण
होता है तो प्रेम--जिसे हम प्रेम कहते हैं; जब दो आत्माओं के
बीच आकर्षण होता है तब प्रार्थना; और जब दो बिलकुल खो जाते
हैं, दो ही नहीं रह जाते, तब इसक, जिसको दादू प्रेम कहते हैं; जिसको जीसस ने प्रेम कहा है। वह
आखिरी ऊंचाई है।
वे सीढ़ियां तुम्हारे भीतर हैं। तुम पहली ही सीढ़ी पर खड़े रह जाओ
तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। दूसरी सीढ़ी पास ही थी। लेकिन कोई अड़चन होनी चाहिए।
कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। इतने लोग चूक जाते हैं कि करीब-करीब ऐसा लगता है, चूकना स्वाभाविक है। और
इतने कम लोग उपलब्ध हो पाते हैं कि ऐसा लगता है, पाना अपवाद
है, नियम नहीं। कोई बुद्ध, कोई चैतन्य,
कोई दादू, कोई नानक--कभी करोड़ों लोगों में एक।
बाधा है: मरने का डर। क्योंकि जितनी ऊंचाई पर तुम जाते हो, उतना ही तुम्हारा अहंकार
क्षीण होने लगता है, गलने लगता है। जितनी ऊंचाई होगी,
उतने ही तुम कम हो जाओगे। यह डर है। जितनी नीचाई होगी, उतने ही तुम रहोगे। ठीक जमीन पर पड़े रहो तो पत्थर की चट्टान की तरह तुम
होओगे। स्वभावतः ऊपर उठना हो तो पत्थर की चट्टानें ऊपर नहीं उठतीं; सुगंध उठती है, अग्नि की शिखा उठती है, भाप उठती है। विरल हो जाना पड़ता है। स्वयं को खोना पड़ता है।
कामवासना में कोई खोता नहीं अपने को। कामवासना में तुम तुम रहते
हो। तुम दूसरे का उपयोग कर लेते हो। तुम मिटते नहीं, वस्तुतः तुम दूसरे को मिटाने की चेष्टा करते
हो।
इसीलिए तो पति-पत्नियों में इतनी कलह है सारे संसार में पूरे
मनुष्य-जाति के इतिहास में। हजार तरह से सोचा गया है कि पति-पत्नी की कलह कैसे
मिटे। कोई उपाय नहीं दिखता। कलह मिट नहीं सकती, ऐसा लगता है।
जब तक मनुष्य ऊपर न उठना सीखे, कलह नहीं मिट सकती। कलह यही है कि पत्नी पति को
मिटाने की चेष्टा कर रही है, पति पत्नी को मिटाने की चेष्टा
कर रहा है। एक गहन संघर्ष है, जो चाहे उन्हें ज्ञात भी न हो।
पति कोशिश कर रहा है कि मैं सब कुछ हूं, तू मेरी परिधि है।
पत्नी भी यही कोशिश कर रही है कि मैं केंद्र हूं, तुम परिधि
हो। दोनों के अहंकार अपने को बचाने की चेष्टा में संलग्न हैं। कहीं दूसरा मिटा न
दे। इसके पहले कि दूसरा मिटाए, मैं उसे मिटा दूं; यही सुरक्षा का उपाय मालूम पड़ता है।
इसलिए कामवासना प्रेम की तो बड़ी दूर की खबर है, हिंसा की ज्यादा। और अगर
ज्ञानियों ने कामवासना से ऊपर उठने को कहा है, तो इसीलिए कहा
है। महावीर ने तो स्पष्ट कहा है कि कामवासना हिंसा है। ये जैन शास्त्र अब तक नहीं
समझा पाए हैं इस बात को कि कामवासना को हिंसा कहने का अर्थ क्या है? उन्होंने मूढ़तापूर्ण बातें खोज ली हैं, पंडितों ने,
कि संभोग करने में कीटाणुओं की हिंसा होती है। क्योंकि दो शरीर का
घर्षण होता है, इसलिए कुछ कीटाणु छोटे हवा के मर जाते हैं।
इसलिए महावीर ने कामवासना को हिंसा कहा है।
पंडितों से मूढ़ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके पास आंखें तो नहीं
हैं, अंधे हैं।
शब्दों के कुछ भी अर्थ तो निकालने ही पड़ेंगे। तो वे अपने अंधेपन से यह अर्थ निकाल
लेते हैं। कामवासना को महावीर ने इसलिए हिंसा नहीं कहा है। इसलिए हिंसा कहा है कि
जहां भी काम है वहां दूसरे को मिटाने की चेष्टा है। वही हिंसा है। और जब तक काम
प्रेम न बन जाए तब तक हिंसा जारी रहेगी। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक
ब्रह्मचर्य का कोई आविर्भाव न होगा।
तो ब्रह्मचर्य कामवासना का त्याग नहीं है, बल्कि कामवासना के भीतर जो
छिपे हुए प्रेम का तत्व है, उसको मुक्त करना है। कामवासना की
हत्या नहीं कर देनी है। यह तो ऐसे हुआ जैसे बीज को कुचल कर मार डाला। अब तुम बैठे
रहो, सुगंध न आएगी। यद्यपि बीज के रहते भी सुगंध न आ सकती
थी। बीज को टूटना था--टूटना था भूमि में; ताकि बीज तो मिट
जाए, लेकिन बीज में छिपी हुई जो सुवास है वह मुक्त हो जाए।
उसको मुक्त होने पर लंबी यात्रा करनी पड़ेगी। बीज को वृक्ष बनना पड़ेगा, वृक्ष को फूल बनना पड़ेगा, फूल से सुवास मुक्त होगी।
लंबी यात्रा है।
सबै सयाने एक मत
ओशो
No comments:
Post a Comment