हम गेहूं को बो देते हैं। फिर गेहूं की फसल आती है और गेहूं के
साथ भूसा भी आता है। भूसा मूल नहीं है,
परिधि है, बाहर का खोल है। गेहूं मूल है--भीतर
का छिपा हुआ हिस्सा है। गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है। लेकिन आप भूसा बो दें तो
गेहूं पैदा नहीं होगा। गेहूं बो दें, भूसा आ जायेगा। अपने आप
आ जायेगा। लेकिन भूसा बो दें तो गेहूं आयेगा ही नहीं, भूसा
भी नष्ट हो जायेगा।
मनुष्य का कर्म जो है,
वह भूसे की तरह है। और मनुष्य का "होना' जो
है, वह गेहूं की तरह है। अगर भीतर "होना' है तो कर्म बदल जायेगा। जैसा "होना' होगा,
वैसा कर्म हो जायेगा। लेकिन बाहर से कर्म बदलता है तो वैसा
"होना' नहीं बदल जाता।
मेरा जोर "होने'
पर है, बीइंग पर। लेकिन कर्मयोग का जोर
"कर्म' पर है, "होने'
पर नहीं, बीइंग पर नहीं। कर्मयोग कहता है
करो--ऐसा करो! ऐसा करोगे तो ऐसे हो जाओगे। गलत है यह बात।
"ऐसे' हो जाओगे तो "ऐसा कर्म' हो सकता है। लेकिन ऐसा न करोगे तो ऐसे नहीं हो जाओगे। लेकिन दिखायी कर्म
पड़ता है, इसलिए भ्रांति हो जाती है।
कोई महावीर हमारे बीच से निकलें तो दिखायी पड़ेगा कि महावीर नग्न
हो गये! कर्म है। वस्त्र पहनना एक कर्म है। नग्न हो जाना एक कर्म है। महावीर नग्न
हो गये, ऐसा
हमें दिखायी पड़ेगा। और फिर दिखायी पड़ेगी महावीर की शांति और महावीर का आनंद और
उनके चारों तरफ रहस्य की बहती हुई हवायें और उनकी आंखों में गहराई। वह सब दिखायी
पड़ेगा। और दिखायी पड़ेगा यह कर्म कि महावीर नग्न हो गये! हमारे मन में भी खयाल हो
सकता है कि अगर मैं भी नग्न हो जाऊं तो जो महावीर को मिला था, वह मुझे भी मिल जायेगा!
हम भूसे से गेहूं की तरफ चले। पकड़ लिया हमने कर्म को। महावीर
क्या खाते हैं, क्या
पीते हैं--यह कर्म है। देखा कि क्या खाते हैं,क्या पीते हैं?
कब खाते हैं, कैसे खाते हैं? कब नहीं खाते हैं? कैसे चलते हैं? कैसे उठते हैं? ये कर्म हैं। कैसे बोलते हैं?
कैसे नहीं बोलते हैं? यह सब हमने देखा। हमने
परिधि को पूरा जांच लिया। हमने कहा कि यह परिधि हम भी पूरी कर लें तो जो इस आदमी
के भीतर घटा है, वह हमारे भीतर भी घट जायेगा!
तो हम भी उठने लगें ब्रह्ममुहूर्त में! हो जायें नग्न। यह खायें, यह न खायें। ऐसे चलें,
ऐसे न चलें। यह हम सब कर लें पूरा। ठीक महावीर जितना करते थे,
उतना कर लें। पूरा, इंच भर भी कमी न रह जाये।
तो भी भीतर वह पैदा नहीं होगा, जो महावीर के भीतर पैदा हुआ,
क्योंकि हम उलटे चल पड़े। घटना को हमने उलटा देखा। महावीर के
भीतर--पहले कुछ भीतर भरा हुआ है, तब फिर बाहर फैला है। हमने
बाहर से पकड़ा और भीतर चले! भीतर से बाहर की तरफ आ सकते है, बाहर
से भीतर की तरफ नहीं जा सकते। बाहर भूसा है, भीतर गेहूं है।
महावीर की आंखों में जो शांति दिखायी पड़ती है, महावीर के अस्तित्व में जो
निर्मलता दिखायी पड़ती है उनके होने में जो एक इनोसेंस--एक निर्दोष साधक है,
वह पहले है। क्योंकि भीतर एक निर्दोष होने का जन्म हो गया है,
इसलिए बाहर वे नग्न हो सके। भीतर की निर्दोषता बाहर की नग्नता बन
सकी। लेकिन बाहर की नग्नता भीतर की निर्दोषता नहीं बन सकती।
नेति नेति
ओशो
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