होता है, किसी विचार को हम अपने मन से बाहर निकालना चाहते हैं। हो सकता है विचार
प्रीतिकर न हो, दुखद हो, चिंता लाता हो,
उदासी लाता हो, घृणा का विचार हो, हिंसा का विचार हो। कोई ऐसा विचार हो जिसे हम अपने मन से बाहर कर देना
चाहते हैं, कोई ऐसी स्मृति हो पीड़ा से भरी हुई, अपमान की कोई स्थिति हो, दुख की कोई घटना हो,
हम उसे भूल जाना चाहते हैं, विस्मरण करना
चाहते हैं, मन से हटाना चाहते हैं। लेकिन जितना उसे हटाते
हैं, वह और हमारे पास आती है। जितना हम उसे दूर फेंकते हैं,
वह और लौट-लौट कर हमारे पास आ जाती है। तो यह पूछा है कि यह कैसे हो?
कैसे उसे अलग किया जाए?
मन की प्रकृति को समझना जरूरी है, तभी कुछ किया जा सकता है। मन की प्रकृति का
पहला नियम यह है कि अगर किसी चीज को भूल जाना है तो उसे भूलने की कोशिश नहीं करनी
चाहिए। क्योंकि भूलने की कोशिश के ही कारण बार-बार उसकी याद बनी रहती है। तुम जब
भी उसे भूलना चाहो तभी उसको फिर याद करना पड़ता है। और भूलने की तो कोशिश होती है,
लेकिन पीछे उसकी याद वापस खड़ी हो जाती है। तुम्हें एक कहानी सुनाऊं,
उससे यह समझ में आ सकेगा।
तिब्बत में मिलारेपा नाम का एक बहुत बड़ा साधु हुआ। उसके पास एक
आदमी आया और उसने कहा कि मैं कोई मंत्र सिद्ध करना चाहता हूं ताकि मेरे पास बड़ी शक्तियां
आ जाएं, मैं कोई
चमत्कार, मिरेकल कर सकूं। मिलारेपा ने कहा कि मैं तो
सीधा-सादा फकीर हूं, मुझे कोई चमत्कार नहीं मालूम और न कोई
शक्ति और न कोई मंत्र। लेकिन जितना उसने इनकार किया उतना ही उस आदमी को ऐसा लगा कि
जरूर इसके पास कुछ होना चाहिए, इसीलिए बताता नहीं है। वह
उसके पीछे ही पड़ गया, वह उसके...रात वहीं पड़ा रहता उसके
दरवाजे पर। आखिर मिलारेपा घबड़ा गया। उसने एक रात, अमावस की
रात थी, उससे कहा कि ठीक है, तुम नहीं
मानते, यह मंत्र ले जाओ। एक कागज पर पांच पंक्तियों का छोटा
सा मंत्र लिख दिया और कहा, इस मंत्र को ले जाओ, अमावस की रात को ही यह सिद्ध होता है, इसे तुम पांच
बार पढ़ना, पांच बार पढ़ते से ही यह सिद्ध हो जाएगा।
वह आदमी तो कागज को लेकर भागा। उसे धन्यवाद देने का भी खयाल न
रहा, उसने
नमस्कार भी नहीं की, उस दिन उसने पैर भी नहीं छुए। वह तो
भागा जल्दी से कि घर जाए और मंत्र को सिद्ध करे। मंदिर की कोई बीस-पच्चीस सीढ़ियां
थीं, वह उनसे नीचे उतर ही रहा था, बीच
सीढ़ियों पर था, तभी उस साधु ने चिल्ला कर कहा कि सुनो,
एक शर्त और है! मंत्र जब पढ़ो तो खयाल रखना बंदर की स्मृति न आए,
बंदर दिखाई न पड़े। अगर मन में बंदर का खयाल आ गया तो मंत्र बेकार हो
जाएगा।
उस आदमी ने कहा,
यह भी क्या बात बताई! मुझे जिंदगी हो गई, आज
तक बंदर का खयाल नहीं आया, स्मृति नहीं आई। कोई डर की बात
नहीं, कोई चिंता का कारण नहीं।
लेकिन वह सीढ़ियां पूरी भी नहीं उतर पाया कि उसके भीतर बंदर की
स्मृति आनी शुरू हो गई। वह जैसे घर की तरफ चला, भीतर बंदर भी उसके मन में स्पष्ट होने लगा,
बंदर बहुत साफ दिखाई पड़ने लगा घर पहुंचते-पहुंचते। वह बहुत घबड़ाया।
उसने कहा, यह क्या मुश्किल हो गई! वह बंदर को भगाने लगा कि
हटो मेरे मन से। लेकिन बंदर था कि जितना वह हटाने लगा, और
स्पष्ट होने लगा। मन में उसका बिंब, बंदर की प्रतिमा स्पष्ट
होने लगी। वह घर गया, आंख बंद करे तो बंदर दिखाई पड़े,
अब मंत्र को कैसे पढ़ा जाए जब तक बंदर दिखाई पड़े! रात भर में परेशान
हो गया, लेकिन बंदर से छुटकारा नहीं हो सका।
सुबह वापस लौटा,
उसने वह मंत्र उस साधु को लौटा दिया और कहा, क्षमा
करें, अगर यही शर्त थी तो आपको मुझे बताना नहीं था। बताने से
सब गड़बड़ हो गई। बंदर मुझे कभी स्मरण नहीं आता था, आज रात भर
बंदर मेरे पीछे पड़ा रहा। और दुनिया का कोई जानवर मुझे दिखाई नहीं पड़ा, सिर्फ बंदर दिखाई पड़ा। और मैं इसे रात भर निकालने की कोशिश करता था,
लेकिन वह नहीं निकलता था।
जिसको कोई निकालना चाहेगा उसे निकालना कठिन हो जाएगा, क्योंकि निकालने के कारण ही
उसकी स्मृति परिपक्व होती है, मजबूत होती है। तो फिर क्या
रास्ता है?
अगर किसी विचार को,
किसी स्मृति को निकालना हो मन से, तो पहली तो
बात यह है, निकालने की कोशिश मत करना। पहली शर्त! फिर क्या
होगा? अगर नहीं निकालेंगे तब तो वह आएगा। सिर्फ उसको देखना।
निकालना मत, मात्र चुपचाप बैठ कर उसे देखना। न उसे निकालना,
न उसे हटाना। तटस्थ-भाव से विटनेस भर हो जाना, उसके साक्षी भर हो जाना।
जैसे कोई रास्ते पर बैठ जाए--रास्ते पर लोग निकलते हैं, तांगे निकलते हैं, कारें निकलती हैं, जानवर निकलते हैं--किनारे पर हम
बैठ कर चुपचाप देख रहे हैं। रास्ता चल रहा है, न हम चाहते
हैं कि फलां आदमी रास्ते पर चले, न हम यह चाहते हैं कि फलां
आदमी न चले, हम सिर्फ देख रहे हैं। हमारा कोई लगाव नहीं,
हम मात्र देख रहे हैं अनासक्त भाव से, बिना
किसी लगाव के, अनअटैच्ड, सिर्फ देख रहे
हैं।
ठीक ऐसे ही,
अगर मन से किन्हीं विचारों से मुक्ति पानी हो, तो सिर्फ देखना, उनसे लड़ना मत। लड़ने के बाद तो उनको
हटाना असंभव है। मात्र उनको देखना। जब भी कोई स्मृति ऐसी है जो हटाने जैसी है,
कोई विचार ऐसा है जिसे विदा करना है--एकांत में बैठ जाओ, उसे आने दो, आंख बंद कर लो, चुपचाप
देखो। जैसे फिल्म देखते हैं हम, सिनेमा में बैठ कर एक पर्दे
पर चलते हुए चित्रों को देखते हैं, वैसे चुपचाप उसे देखो।
कुछ करो मत, छेड़ो मत, हटाओ मत, बुलाओ मत, मात्र देखो--जैसे केवल एक दर्शक मात्र।
तुम हैरान हो जाओगे, अगर दर्शक मात्र की तरह देखो तो थोड़ी
देर में वह विलीन हो जाएगी। और जब भी वह आए तब दर्शक की तरह देखो, कुछ दिनों में वह विलीन हो जाएगी, उसका आना बंद हो
जाएगा।
समाधि कमल
ओशो
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