परमात्मा ने तुम्हारे भीतर आनंदमग्न होने की पूरी क्षमता दी है।
मगर तुम्हारा समादर गलत है, रुग्ण है। उस कारण सुख कैसे हो!
तुम कृपण हो,
कंजूस हो। और सुखी तो वही हो सकता है, जिनको बांटने
में आनंद आता हो। तुम्हें तो इकट्ठा करने में आनंद आता है! हम तो कंजूसों को कहते हैं--सरल
लोग हैं, सीधे-सादे लोग हैं!
मैं एक गांव में एक कंजूस के घर में मेहमान हुआ। महाकंजूस! मगर सारे
गांव में उसका आदर यह कि सादगी इसको कहते हैं! सादा जीवन--ऊंचे विचार! क्या ऊंचा जीवन
और ऊंचा विचार साथ-साथ नहीं हो सकता?
और सादा जीवन ही जीना हो, तो यह तिजोड़ी को काहे
के लिए भर कर रखे हुए हो! मगर हर गांव में तुम पाओगे: कंजूसों को लोग कहते हैं--सादा-जीवन!
कि है लखपति, लेकिन देखो, कपड़े कैसे पहनता
है!
सेठ धन्नालाल की पुत्री जब अट्ठाइस वर्ष की हो गई, और आसपास के लोग ताना देने लगे
कि यह कंजूस दहेज देने के भय से अपनी बेटी को क्वांरी रखे हुए है, तो सेठजी ने सोचा कि अब जैसे भी हो लड़की का विवाह कर ही देना चाहिए,
क्योंकि जिन लोगों के बीच रहना है, उठना-बैठना
है, धंधा-व्यापार करना है, उनकी नजरों में
गिरना ठीक नहीं। उन्होंने लड़के की खोज शुरू कर दी। पड़ोस के ही गांव के एक मारवाड़ी धनपति
का बेटा चंदूलाल उन्हें पसंद आया। जब वे लोग सगाई करने के लिए धन्नाालाल के यहां आए
तो चंदूलाल के बाप ने पूछा--आपकी बेटी बुद्धिहीन अर्थात फिजूलखर्ची व्यक्ति तो नहीं है? और हम नहीं चाहते कि कोई आकर हमारी परंपरा से जुड़ती चली आ
रही संपत्ति को नष्ट करे; बाप-दादों की जमीन-जायदाद हमें जान
से भी ज्यादा प्यारी है। यह देखिए मेरी पगड़ी; मेरे बाप को मेरे
दादा ने दी थी; दादा को उनके बाप ने; उन्हें
उनके पितामह ने; और उनके पितामह ने अपने एक बजाज दोस्त से उधार
खरीदी थी। क्या आपके पास भी ऐसा फिजूलखर्ची न होने का कोई ठोस प्रमाण है?
धन्नालाल जी बोले--क्यों नहीं, क्यों नहीं। हम भी पक्के मारवाड़ी हैं, कोई ऐरे-गैरे नत्थू खैरे नहीं। फिर उन्होंने जोर से भीतर की ओर आवाज दे कर
कहा--बेटी धन्नो, जरा मेहमानों के लिए सुपाड़ी वगैरह तो ला।
चंद क्षणोपरांत ही धन्नालाल की बेटी सुंदर अल्युमीनियम की तश्तरी
में एक बड़ी-सी सुपाड़ी लेकर हाजिर हुई;
सबसे पहले उसने अपने बाप के सामने प्लेट की। धन्नालाल ने सुपाड़ी को उठा
कर मुंह में रखा; आधे मिनट तक यहां-वहां मुंह में घुमाया,
फिर सुपाड़ी बाहर निकाल कर सावधानीपूर्वक रूमाल से पोंछकर तश्तरी में
रख अपने भावी समधी की ओर बढ़ाते हुए कहा--लीजिए, अब आप सुपाड़ी
लीजिए!
चंदूलाल और उसका बाप दोनों यह देखकर ठगे से रह गए। उन्हें हतप्रभ
देखकर धन्नालाल बोले--अरे संकोच की क्या बात,
अपना ही घर समझिए। तकल्लुफ की कतई जरूरत नहीं। यह सुपाड़ी तो हमारी पारंपरिक
संपदा है। पिछली चार शताब्दियों से हमारे परिवार के लोग इसे खाते रहे हैं। मेरे बाप,
मेरे बाप के बाप, मेरे बाप के दादा, मेरे दादा के दादा सभी के मुंहों में यह रखी रही है। मेरे दादा के दादा के
दादा के बादशाह अकबर के राजमहल के बाहर यह पड़ी मिली थी!
ऐसा-ऐसा सादा जीवन जीया जा रहा है! सुख हो तो कैसे हो!
सुखी होने के लिए जीवन के सारे आधार बदलने आवश्यक हैं! कृपणता में
सुख नहीं हो सकता। सुख बांटने में बढ़ता है;
न बांटने से घटता है। संकोच से मर जाता है; सिकोड़ने
से समाप्त हो जाता है। फैलने दो--बांटो। और कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि जिनको तुम आमतौर
से गलत आदमी समझते हो, वे गलत न हों।
जो बोले सो हरि कथा
ओशो
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