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Friday, July 20, 2018

विरक्त होने के लिए आसक्ति का होना जरूरी है, नहीं तो विरक्त कैसे होओगे?


जैसे ठंडक और गर्मी एक ही थर्मामीटर से नापे जाते हैं, वैसा ही तुम्हारा भोग और योग है, वैसी ही विरक्ति और आसक्ति है, वैसी ही परतंत्रता  स्वतंत्रता है, वैसी ही अहंकार और विनम्रता हैजरा भी भेद नहीं हैयह एक ही द्वंद्व का विस्तार हैमगर सदियों तक हमें समझाया गया है तो हमारा संस्कार गहरा हो गया हैहम कहते हैं देखो, फलां आदमी कितना विनम्र! कैसा विनम्र!


मगर तुम विनम्र आदमी के भीतर झांककर देखो, तो पाओगे वही अहंकार शीर्षासन कर रहा है अबशीर्षासन करने से कुछ फर्क नहीं पड़ता


पहले अकड़ थी कि मैं बहुत कुछ हूं, सब कुछ हूं, अब अकड़ है कि मैं ना कुछ हूं; मगर अकड़ कायम है, अकड़ जरा भी नहीं बदलीपहले धन के लिए दीवाना था, अब ऐसा डर गया है कि कहीं धन पड़ा हो, तो कंपने लगता है


चीन में बड़ी प्रसिद्ध कथा हैएक फकीर की बड़ी ख्याति हो गईख्याति हो गई कि वह निर्भय हो गया हैऔर निर्भयता अंतिम लक्षण हैएक दूसरा फकीर उसके दर्शन को आयावह फकीर जो निर्भय हो गया था, समस्त भयों से मुक्त हो गया था, बैठा था एक चट्टान परसांझ का वक्त, और पास ही सिंह दहाड़ रहे थेमगर वह बैठा था शांत, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा हैदूसरा फकीर आया, तो सिंहों की दहाड़ सुनकर कंपने लगा, दूसरा फकीर कंपने लगानिर्भय हो गया फकीर बोला: तो अरे, तो तुम्हें अभी भी भय लगता है! तुम अभी भी भयभीत हो! फिर क्या खाक साधना की, क्या ध्यान साधा, क्या समाधि पाई! कंप रहे हो सिंह की आवाज से, तो अभी अमृत का तुम्हें दर्शन नहीं हुआ, अभी मृत्यु तुम्हें पकड़े हुए है! उस कंपते फकीर ने कहा कि मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है, पहले पानी, फिर बात हो सकेमेरा कंठ सूख रहा है, मैं बोल सकूंगा


निर्भय हो गया फकीर अपनी गुफा में गया पानी लेनेजब तक वह भीतर गया, उस दूसरे फकीर ने, जहां बैठा था निर्भय फकीर, उस पत्थर पर लिख दिया बड़ेबड़े अक्षरों में: नमो बुद्धायबुद्ध को हो नमस्कारआया फकीर पानी लेकरजैसे ही उसने पैर रखा चट्टान पर, देखा नमो बुद्धाय पर पैर पड़ गया, मंत्र पर पैर पड़ गया; झिझक गया एक क्षणआगंतुक फकीर हंसने लगा और उसने कहा: डर तो अभी तुम्हारे भीतर भी हैसिंह से डरते होओ, लेकिन पत्थर पर मैंने एक शब्द लिख दियानमो बुद्धाय, इस पर पैर रखने से तुम कंप गए! भय तो अभी तुम्हें भी हैभय ने सिर्फ रूप बदला है, बाहर से भीतर जा छिपा है, चेतन से अचेतन हो गया हैभय कहीं गया नहीं है


निर्भय आदमी में भय नहीं जाता, सिर्फ भय नए रूप ले लेता है, निर्भयता का आवरण ओढ़ लेता हैजो व्यक्ति समाधिस्थ होता है, तो भयभीत होता है, निर्भय होता हैनिर्भय होने के लिए भी भय का होना जरूरी है, नहीं तो निर्भय कैसे होओगे? विरक्त होने के लिए आसक्ति का होना जरूरी है, नहीं तो विरक्त कैसे होओगे?

कहै वाजिद पुकार 

 ओशो

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