लोग पूछते हैं कि जगत को किसने बनाया? तो यह अर्थहीन प्रश्न है।
यह अर्थहीन इसलिए है कि यदि हम उत्तर दे पाएं कि जगत को अ ने बनाया, तो प्रश्न फिर खड़ा हो जाता है कि अ को किसने बनाया? और
हम कितने ही उत्तर खोजते चले जाएं--ब, स, और अंतहीन--लेकिन हर उत्तर के बाद प्रश्न अपनी जगह ही खड़ा पाया जाएगा।
क्योंकि प्रश्न में हमने एक बात मान ली थी कि कोई चीज बिना बनाए नहीं हो सकती।
वहीं भ्रांति हो गई। अब वही भ्रांति हमारा पीछा करेगी। अगर कोई कहेगा ईश्वर ने
बनाया, तो प्रश्न उठेगा, ईश्वर को
किसने बनाया? और आप अब यह न कह सकेंगे कि ईश्वर बिना बनाया
हुआ है। क्योंकि अगर आप यही कहते हैं, तो पहला प्रश्न ही गलत
था। फिर संसार ही बिना बनाया हो सकता है। तो यह प्रश्न जो है, इनफिनिट रिग्रेस में ले जाता है, अंतहीन व्यर्थ
उत्तरों में ले जाता है। तो जिस प्रश्न का उत्तर प्रश्न को समाप्त न करता हो और
प्रश्न उत्तर के बाद भी ठीक वैसा ही खड़ा रहता हो जैसा पहले था, तो वह प्रश्न व्यर्थ है।
ठीक जीवन के उद्देश्य के संबंध में भी वही भ्रांति होती है। जब
हम पूछते हैं, जीवन
का उद्देश्य क्या? तब हम यह मान ही लेते हैं कि कोई चीज बिना
उद्देश्य के नहीं हो सकती। यह हमारा इंप्लीकेशन है, यह हमने
भीतर स्वीकार कर लिया। लेकिन हम भूलते हैं; हम कुछ भी
उद्देश्य बताएं, पुनः यह पूछा जा सकता है कि जो हमने बताया,
उसका उद्देश्य क्या? जैसे धार्मिक आदमी कहेगा,
जीवन का उद्देश्य ईश्वर को पा लेना है। लेकिन क्या यह नहीं पूछा जा
सकता कि ईश्वर को पा लेने का उद्देश्य क्या है? पाकर भी क्या
करेंगे? पा भी लिया, फिर क्या होगा?
पा लेने के बाद भी ईश्वर को यह प्रश्न तो संगत रूप से पूछा ही जा
सकता है कि इस ईश्वर को पा लेने का उद्देश्य क्या? धार्मिक
व्यक्ति कह सकते हैं कि जीवन का लक्ष्य मोक्ष को पा लेना है। लेकिन मोक्ष का
लक्ष्य?
तो यह व्यर्थ प्रश्न है। व्यर्थ इसलिए है कि कोई भी उत्तर इसे
खंडित नहीं करेगा। कोई भी उत्तर,
ध्यान रखें! ऐसा मत सोचें कि कोई उत्तर तो होगा ही, जो इसे खंडित कर देगा। आपका उत्तर मुझे पता नहीं है, तो भी मैं कहता हूं, कोई भी उत्तर आप खोज लाएं,
वह व्यर्थ होगा। क्योंकि यह प्रश्न पुनः सार्थक रूप से पूछा जा सकता
है कि आप जो भी खोज लाए हैं एक्स, वाई, जेड, उसका उद्देश्य क्या है? इस
बात को कहने के लिए कि यह प्रश्न व्यर्थ है, आपके उत्तर को
जानना मेरे लिए जरूरी नहीं है। यह प्रश्न ही व्यर्थ है, क्योंकि
इसका सार्थक रूप से कोई भी उत्तर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि हर दिए गए उत्तर के
बाद यह पुनः अपना सिर वैसे ही खड़ा कर लेता है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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