स्वाभाविक, मुझसे पूछा जा सकता है, फिर मैं क्यों बोलूं?
मैं क्यों कहूं? मैं बाहर हूं और कुछ कहूंगा।
मैं इतनी ही बात कहना चाहता हूं कि बाहर जो भी है, उसे बाहर का समझें और ज्ञान
न समझें। वह चाहे मेरा हो और चाहे किसी और का हो। ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के भीतर
उसका स्वरूप है। उस स्वरूप को जानने के लिए बाहर खोजने की कोई भी जरूरत नहीं है।
बाहर से जो भी हम सीख लेंगे, यदि उस सत्य को जानना हो जो
हमारे भीतर है, तो उसे अनसीखा करना होगा, उसे अनलर्न करना होगा, उसे छोड़ देना होगा। सत्य
जिन्हें जानना है, उन्हें शास्त्र को छोड़ देना होता है। जो
शास्त्र को पकड़ेंगे, सत्य उन्हें उपलब्ध नहीं होगा। हम सारे
लोग शास्त्र को पकड़े बैठे हैं। दुनिया में यह जो इतना उपद्रव है, वह शास्त्र को पकड़ने के कारण है। ये जो हिंदू हैं, ये
जो मुसलमान हैं, ये जो जैन हैं, या
ईसाई हैं, या पारसी हैं, ये कौन हैं?
इनको कौन लड़ा रहा है? इनको कौन एक-दूसरे से
अलग कर रहा है?
शास्त्र अलग कर रहे हैं! शास्त्र लड़ा रहे हैं! सारी मनुष्यता
खंडित है, क्योंकि
कुछ किताबें कुछ लोग पकड़े हुए हैं; कुछ दूसरी किताबें दूसरे
लोग पकड़े हुए हैं। किताबें इतनी मूल्यवान हो गई हैं कि हम मनुष्य की हत्या कर सकते
हैं। और पिछले तीन हजार वर्षों में हमने लाखों लोगों की हत्या की है, क्योंकि किताबें बहुत मूल्यवान हैं। क्योंकि किताबें बहुत पूज्य हैं,
इसलिए मनुष्य के भीतर जो परमात्मा बैठा है, उसका
भी अपमान किया जा सकता है, उसकी भी हत्या की जा सकती है।
क्योंकि शब्द और शास्त्र बहुत मान्य हैं, इसलिए मनुष्यता को
इनकार किया जा सकता है, अस्वीकार किया जा सकता है। यह हुआ
है। यह आज भी हो रहा है।
मनुष्य-मनुष्य के बीच जो दीवाल है, वह शास्त्रों की है। और
क्या कभी यह खयाल पैदा नहीं होता कि जो शास्त्र मनुष्य को मनुष्य से अलग करते हों,
वे मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेंगे? जो
मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह मनुष्य को परमात्मा
से जोड़ने की सीढ़ी कैसे बन सकता है? लेकिन हम सोचते हैं कि
शायद वहां कुछ मिले। जरूर कुछ मिलता है। शब्द मिल जाते हैं। सत्य को दिए गए शब्द
मिल जाते हैं और शब्द स्मरण हो जाते हैं। वे हमारी स्मृति में प्रविष्ट हो जाते
हैं और स्मृति को हम ज्ञान समझ लेते हैं।
स्मृति ज्ञान नहीं है। मेमोरी ज्ञान नहीं है। कुछ चीजें सीख
लेना, स्मरण कर
लेना, ज्ञान नहीं है। ज्ञान का जन्म बहुत दूसरी बात है।
स्मृति का प्रशिक्षण बहुत दूसरी बात है। स्मृति के प्रशिक्षण से कोई पंडित हो सकता
है, लेकिन प्रज्ञा जाग्रत नहीं होती। और ज्ञान तो सारे जीवन
को क्रांति कर देता है।
अमृत की दशा
ओशो
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