प्रभु को देखने का प्रश्न नहीं है, आंख खोलने का प्रश्न है।
सौंदर्य को अनुभव करने की बात ऐसी नहीं है कि सौंदर्य वहां पड़ा है और अनुभव हो
जाए। सौंदर्य को अनुभव करनेवाला संवेदनशील हृदय जगाना पड़ता है। भीतर संवेदनशील
हृदय हो तो बाहर सौंदर्य है। अंधा आदमी प्रकाश को तलाशे और प्रकाश उसे न मिले,
तो प्रकाश का कोई कसूर है? अंधे आदमी को आंख
का इलाज खोजना चाहिए, आंख की औषधि खोजनी चाहिए। अंधे आदमी को
सूरज की खोज में नहीं जाना चाहिए, वैद्य की खोज में जाना
चाहिए।
इसलिए संतों ने निरंतर कहा है कि परमात्मा को मत खोजो, गुरु को खोजो। परमात्मा को
कैसे खोजोगे? परमात्मा को खोजने में तुम सीधे समर्थ होते तो
तुमने कभी का खोज लिया होता।
एक अंधे आदमी को बुद्ध के पास लाया गया था। वह अंधा आदमी बड़ा
तार्किक था। अंधे अकसर तार्किक हो जाते हैं। अंधों को तार्किक होना पड़ता है।
तार्किकता अंधेपन के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी है। कारण है। अंधा आदमी अगर यह
चुपचाप मान ले कि प्रकाश है तो उसने यह भी मान लिया कि मैं अंधा हूं। और कौन मानना
चाहता है कि मैं अंधा हूं! मन को पीड़ा
होती है। अहंकार को चोट पड़ती है। छाती में घाव हो जाता है। प्रकाश को मानो तो यह
मानना पड़ेगा कि मैं अंधा हूं, क्योंकि मुझे दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए उचित यही है कि प्रकाश को ही न मानो।
जड़ से ही काट दो बात, प्रकाश है ही नहीं। और जब प्रकाश नहीं
है तो मुझे क्यों दिखाई पड़ेगा, कैसे दिखाई पड़ेगा? प्रकाश को इनकार करके अंधे आदमी ने अपने अंधेपन को इनकार कर दिया। उसने
अपने घाव से बचा लिया। वह जो पीड़ा होती है, वह जो अवमानना
होती है, वह जो अपने ही सामने दीनता हो जाती कि मैं अंधा हूं,
अभागा हूं, उससे बचने का उपाय क्या है?
उससे बचने का एक ही उपाय है कि प्रकाश है ही नहीं। इसलिए अंधा
तार्किक हो जाता है।
नास्तिक का इतना ही अर्थ होता है कि वह आदमी आत्मरक्षा में लगा है।
कह रहा है : ईश्वर नहीं है। क्योंकि अगर ईश्वर है, तो फिर मैं दीन हूं। अगर ईश्वर है, तो फिर मैंने अपने जीवन का कोई सदुपयोग नहीं किया। अगर ईश्वर है, तो मैंने ऐसे ही कूड़े-कांकर को इकट्ठा करने में जीवन गंवा दिया। मैं
व्यर्थ गया।
कौन मानना चाहता है कि मैं व्यर्थ गया! मैं सार्थक हूं, तो एक ही उपाय है कि ईश्वर
नहीं है। होता तो मुझे भी मिल गया होता, मुझमें क्या कमी थी?
मेरी पात्रता में कौन-सी कमी है? होता तो मुझे
भी मिल गया होता। नहीं मिला, तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं
: या तो मैं अपात्र हूं या वह नहीं है। दूसरी ही बात माननी आसान मालूम पड़ती है,
अहंकार के विपरीत नहीं जाती । इसलिए मैंने कहा कि अंधे तार्किक हो
जाते हैं। साधारण अंधों की बात नहीं कर रहा हूं, आध्यात्मिक
अंधों की बात कर रहा हूं।
उस अंधे आदमी को बुद्ध के पास ले जाया गया। बड़ा तार्किक था! जो
भी सिद्ध करना चाहते कि प्रकाश है,
वह असिद्ध कर देता और भी एक बात खयाल में ले लेना, जिसको प्रकाश दिखाई नहीं पड़ा है, तुम उसके सामने प्रकाश को सिद्ध करना भी चाहोगे तो कर न पाओगे। वह तुम्हें
असिद्ध कर देगा। यद्यपि तुम जानते हो कि प्रकाश है, मगर
जानना एक बात है और जनाना दूसरी बात है। जानने से क्या होता है? कैसे सिद्ध करोगे अंधे आदमी के सामने कि प्रकाश है? न
तो प्रकाश को उसके हाथ में दे सकते हो कि वह छू ले, चख ले,
गंध ले ले, प्रकाश को बजाकर ध्वनि सुन ले। ये
चार इंद्रियां उसके पास हैं।
वह अंधा आदमी भी अपने मित्रों को कहता था कि तुम प्रकाश को मुझे
दे दो, मैं ज़रा
हाथ में प्रकाश लेकर स्पर्श कर लूं। और ऐसा भी नहीं है कि प्रकाश हाथ में नहीं
पड़ता है, लेकिन प्रकाश का स्पर्श नहीं होता। खड़े हो धूप में
तो हाथ पर प्रकाश बरस रहा है, लेकिन स्पर्श नहीं होता।
वह अंधा आदमी कहता था कि मुझे दे दो, ज़रा मैं चख लूं--मीठा है,
कड़वा है, तिक्त है, स्वाद
क्या है? कोई भी चीज हो तो उसका स्वाद तो होगा। उसे बजाकर,
ठोक कर देख लूं, कुछ आवाज तो निकलेगी! ऐसे मैं
मान लूंगा कि आज प्रकाश है।
वे थक गए थे,
हार गए थे। उनका सारा अनुभव दो कौड़ी का कर दिया था उस अंधे आदमी ने।
एक नास्तिक हजारों अनुभव से भरे हुए लोगों को हरा सकता है। नकार की वह बड़ी खूबी
है। तुम कहो कि चांद सुंदर है और हजार लोग कहें कि चांद सुंदर है, लेकिन एक आदमी खड़ा हो जाए और कहे कि सिद्ध करो,क्या
सौंदर्य है, कौन-सा सौंदर्य, कहां है
सौंदर्य?--तो हजार व्यक्ति जो अनुभव कर रहे थे चांद का
सौंदर्य, अपने भीतर सिकुड़ जाएंगे, कोई
उपाय न पाएंगे। अनुभव को सिद्ध करने का कोई उपाय होता ही नहीं।
वे उस आदमी को बुद्ध के पास ले आए, सोचा कि बुद्ध तो सिद्ध कर
सकेंगे! लेकिन बुद्ध अनूठे व्यक्ति थे। बुद्ध ने कहा, तुम
इसे मेरे पास लाए क्यों, इसे किसी वैद्य के पास ले जाओ। मेरा
अपना वैद्य है, जो कभी-कभी मेरी चिकित्सा करता है। जीवक उसका
नाम है, तुम उसके पास ले जाओ। इसकी आंख पर जाली है, जाली कटनी चाहिए। जाली कट गई। छह महीने के बाद वह अंधा आदमी नाचता हुआ आया,
बुद्ध के चरणों में गिरा और कहा : मुझे क्षमा कर दें। मैंने उस समय
जो बातें कही थीं, मैं अज्ञानी था। मैंने जो दंभ दिखलाया था
कि प्रकाश नहीं है, वह मेरी भ्रांति थी। मगर मैं और कर भी
क्या सकता था? मुझे दिखाई नहीं पड़ता था, तो मुझे ऐसा ही लगता था कि जितने लोग कहते हैं प्रकाश है, वे सब मुझे अंधा सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे पीड़ा होती थी।
प्रकाश शब्द ही मुझे कांटे की तरह चुभता था। आपने भला किया मुझे समझाया नहीं,
समझाते तो मैं समझता नहीं। मैं आपसे भी जूझा होता, आपसे भी विवाद किया होता। और अब मैं जानता हूं, मैंने
देख लिया। मैं भी किसी अंधे आदमी को समझा न सकूंगा। अब मैं आपकी तकलीफ भी समझता
हूं। और मेरे मित्रों की तकलीफ भी समझता हूं; उनसे भी क्षमा
मांग आया हूं।
तुम पूछो कि मैं न सत्य को देखता हूं न सौंदर्य को। प्रभु का भी
मुझे कुछ आभास नहीं होता है, तो इसका एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर जो संवेदना के स्रोत होने चाहिए,
वे सोए पड़े हैं। उन्हें जगाना होगा। तुम परमात्मा की बात ही छोड़ दो।
तुम ध्यान करो।
ज्योति से ज्योति जले
ओशो
No comments:
Post a Comment