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Friday, May 27, 2016

हम वही सुनते हैं जहां हमारा मन लगा है

एक फकीर अपने एक साथी के साथ एक बाजार से गुजरता था। पास ही की पहाड़ी पर खड़े चर्च की संध्या की प्रार्थना की घंटियां बजने लगीं। उस फकीर ने कहा, सुनते हो उस युवक को कितना मधुर रव है! कैसा प्यारा संगीत है! पहाड़ पर खड़े चर्च की घंटियों की आवाज सुनी? उस युवक ने कहा, इस बाजार के शोरगुल में कहां का पहाड़, कहां का चर्च, कहां की घंटियां! मुझे कुछ सुनाई नहीं पड़ता। यहां इतना शोरगुल मचा है, सांझ का वक्त है, लोग अपनी दुकानें उठा रहे हैं, ग्राहक आखिरी खरीद फरोख्त कर रहे हैं, बेचने वाले भी कोशिश में हैं कि कुछ कम दाम में ही सही, जल्दी बिक जाए, जो भी बिक जाए बिक जाए। सूरज ढलने ढलने को है। लोगों को अपना सामान बांधना है। लोगों को अपनी गाड़ियां तैयार करनी हैं। लोगों को भागना है अपने घरों की तरफ। यहां इतना शोरगुल मचा है! घोड़े हिनहिना रहे हैं, बैल आवाज कर रहे हैं, गाड़ियां जोती जा रही हैं। घुड़सवार हैं, आदमी हैं, भीड़ भाड़ है। कहां की घंटियां? इतनी भीड़ भाड़ में, इतने शोरगुल में मुझे कुछ सुनाई नहीं पड़ता।

उस फकीर ने अपनी जेब से एक रुपया निकाला। पुरानी कहानी है। नगद, चांदी का रुपया! जोर से उसे पास के ही पत्थर पर पटक दिया। सड़क के किनारे लगा पत्थर, खननखन की आवाज! और एक भीड़ इकट्ठी हो गई। सौ दो सौ आदमी एकदम दौड़ पड़े। कहा कि किसी का रुपया गिरा। उस फकीर ने उस युवक को कहा, देखते हो! घोड़े हिनहिना रहे हैं, गाड़ियां सजाई जा रही हैं, खरीद फरोख्त का आखिरी वक्त, सांझ हो रही है, बिसाती अपना फैलाव संवार रहे हैं; लेकिन रुपये की खननखन दो सौ आदमियों ने सुन ली! और चर्च की घंटियां गूंज रही हैं, किसी को सुनाई नहीं पड़ता!

रुपये पर जिसका मन अटका हो वह रुपये को सुन लेगा। हम वही सुनते हैं जहां हमारा मन लगा है। हम वही गुनते हैं जहां हमारा मन लगा है। हम वही देखते हैं…रास्ता तो वही होता है, लेकिन हर गुजरने वाला अलग अलग चीजें देखता है। चमार रास्ते के किनारे बैठा हुआ तुम्हारे चेहरे नहीं देखता, तुम्हारे जूते देखता है। चेहरों से उसे क्या लेना देना! उसका प्रयोजन जूतों से है। लोग वही देखते हैं जहां उनकी वासना है, जहां उनकी आकांक्षा है, अभीप्सा है।

काहे होत अधीर 

ओशो 


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