संसार तो रहता है, पहले जैसा नहीं रहता। और अगर अब भी पहले जैसा रह जाए,
तो जानना कि उसने अभी जाना नहीं है। यह खुद की परीक्षा के लिए है। यह खुद
ही देखते चलना है।
पत्नी है, मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि पत्नी है, बच्चे हैं,
कलह है, परिवार है, धंधा है, कुछ हो नहीं सकता इसमें, हम छोड़ कर भाग जाएं!
मैं उनसे कहता हूं, छोड़ कर मत भागो। भाग कर जाओगे भी कहा? संसार सब जगह
है। और तुम अगर जैसे हो वैसे ही रहे, तो कोई दूसरी तुम्हारी पत्नी बन
जाएगी, कोई दूसरा घर बस जाएगा, कोई दूसरा धंधा शुरू हो जाएगा। धंधे बहुत
तरह के हैं, धार्मिक किस्म के धंधे भी हैं। नहीं खोली दुकान, एक मठ खोल
लेंगे। कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा। करोगे क्या! वह जो आदमी भीतर बैठा है, वह
अगर वैसा ही है, तो वह जानता जो है, वही तो करेगा!
भागो मत, वहीं रह कर डूबते चले जाओ, खोजते चले जाओ। खोज उस दिन पूरी समझ
लेना, जिस दिन बाजार में बैठे रहो और बाजार भी रहे, और तुम्हारे लिए बाजार
न रह जाए। पत्नी पास बैठी हो, पत्नी के मन में पत्नी ही रहेगी, रही आए।
तुम्हारे लिए पहले तो पत्नी न रह जाए। वह जो मेरे होने का भाव है, वह
विसर्जित हो जाए। स्त्री रह जाएगी। पर स्त्री भी तभी तक दिखाई पड़ेगी जब तक
कामवासना है। फिर ध्यान और गहरा हो, कामवासना भी क्षीण हो जाए, तो फिर वह
स्त्री भी न रह जाएगी; फिर वह देह भी न रह जाएगी। और जैसे जैसे तुम्हारे
भीतर कुछ टूटता जाएगा, वैसे वैसे बाहर तुम्हारा जो प्रक्षेपण था, उस स्त्री
के ऊपर तुम्हारे जो भाव थे पत्नी के, स्त्री के वे भी विलीन होते चले
जाएंगे। एक दिन ऐसा आएगा कि तुम जहा बैठे हो, वहीं शून्य हो जाओगे। चारों
तरफ संसार वही होगा, लेकिन तुम वही नहीं रहोगे। इसलिए तुम्हारी दृष्टि बदल
जाएगी।
इसे खोजते रहना है निरंतर कि मुझे कहीं वैसा ही तो नहीं है सब? सब वैसा
ही तो नहीं चल रहा है? नाम बदल जाते हैं, वस्तुएं बदल जाती हैं, लेकिन ढंग
भीतर का अगर वही चल रहा है, और सब वैसा ही दिखाई पड़ रहा है, तो फिर तो फिर
समझना कि जीवनमुक्ति बहुत दूर है, सत्य की झलक बहुत दूर है।
सत्य की झलक का अर्थ ही है कि तुम्हारे और तुम्हारे संसार के बीच में
संबंध बदल जाए; संसार तो वही रहेगा। संबंध भी तभी बदलेगा, जब मैं बदल जाऊं।
अध्यात्म उपनिषद
ओशो
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