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Thursday, May 19, 2016

राम हो सकते हैं रावण के बिना? कभी सोचा!


राम की कथा में रावण को काट दें, तो राम की सारी कथा एकदम व्यर्थ हो जाएगी। रावण के कारण ही सारा रस है। रावण की मौजूदगी के कारण ही राम की सारी गरिमा है। वह जो राम का शुभ है, वह रावण के अशुभ की पृष्ठभूमि में ही उभरता है।

रावण के बिना राम वैसे ही होंगे, जैसे ब्लैक बोर्ड के बिना उस पर लिखे हुए सफेद अक्षर हो जाएंगे। ब्लैक—बोर्ड हट जाए, सफेद अक्षर खो जाएंगे। वे सफेद अक्षर उभर कर दिखते थे, इसलिए नहीं कि वे सिर्फ सफेद थे, बल्कि इसलिए भी कि काले तख्ते पर थे। उनकी सफेदी में काले तख्ते का हाथ था। काले तख्ते के कारण ही वे इतने शुभ्र मालूम होते थे। काला तख्ता हट गया, वे शुभ अक्षर भी खो गए।

बड़े मजे की बात है कि अगर साधुओं की आकांक्षाएं पूरी हो जाएं, और सारा जगत साधु हो जाए, तो सबसे पहले मिटने वाली जो चीज होगी, वह साधुओं का अस्तित्व होगा। साधु अपने को ही मिटाने में लगे रहते हैं। अभी तक सफल नहीं हो पाए। कभी भी सफल नहीं हो पाएंगे। क्योंकि वे हो ही नहीं सकते, असाधु के बिना। जैसे रात के बिना दिन का होना असंभव है, और जैसे अंधेरे के बिना प्रकाश का होना असंभव है, और जैसे मृत्यु के बिना जन्म का होना असंभव है, वैसे ही सभी विपरीत आपस में जुड़े हैं।

तो यह कोई बुद्धिमान न सोचें कि जो मूढ़ हैं, उनसे वे अलग हैं। कोई सुंदर व्यक्ति यह न सोचे कि कोई कुरूप है, तो उससे वह अलग है। और कोई स्वस्थ आदमी यह न सोचे कि बीमार से वह भिन्न है। हम सब जुड़े हैं। हम सब गहरे में जुड़े हैं।

अगर यह जोड़ खयाल में आ जाए, तो बुद्धिमान का अहंकार गिर जाएगा। क्योंकि बुद्धिमान अहंकार ही क्या कर रहा है? वह यही अहंकार कर रहा है कि मैं मूढ़ नहीं हूं। लेकिन मूढ़ के बिना वह हो नहीं सकता। वह मूढ़ के आधार पर ही खड़ा है। अहंकार का भी क्या बल है? अहंकार से ज्यादा नपुंसक कोई चीज है जगत में? बुद्धिमान का अहंकार यही है कि मैं मूढ़ नहीं हूं। लेकिन मूढ़ के बल पर ही वह खडा है।

नेता सोचता है कि मैं अनुयायी नहीं हूं। लेकिन अनुयायियों के बिना क्या नेता हो सकता है? अनुयायियों की वजह से ही वह नेता है। महान पुरुष सोचते हैं कि वे महान हैं, तो वे महान नहीं हैं। क्योंकि वे इस बात को भूल गए हैं कि वे क्षुद्र लोगों के कारण ही महान दिखाई पड़ रहे हैं। महान व्यक्ति को यह बात भी खयाल में आ ही जाएगी कि मैं क्षुद्र लोगों के कारण ही महान दिखाई पड़ रहा हूं। तब तो महानता भी क्षुद्र हो गई। क्योंकि जिस महानता को क्षुद्रता की दीवाल का सहारा चाहिए हो, उस महानता में महानता भी क्या रही! और बात दोनों तरफ एक सी है।

अगर बुद्धिमान को यह दिखाई पड़ जाए कि मूढ़ता भी मेरे ही सिक्के का दूसरा पहलू है, तो मूढ़ के प्रति उसका जो अपमान है, जो अवमानना है, वह खो जाएगी। मूढ़ के प्रति एक बंधु भाव पैदा हो जाएगा। अगर साधु को यह दिखाई पड़ जाए कि असाधु मेरे ही सिक्के का दूसरा अंग है, तो साधु के मन में जो असाधु की निंदा है, वह समाप्त हो जाएगी। असाधु के प्रति भी गहरी मैत्री और प्रेम का उदय हो जाएगा। और जब तक किसी साधु में ऐसी करुणा पैदा न हो, तब तक जानना कि उसे अभी अद्वैत का कुछ भी पता नहीं है।

साधना सूत्र 

ओशो 
 

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