धर्मेश, जो उसको मंजूर! मेरी क्या मर्जी? यहां मेरी मर्जी नहीं
चलती। और यहां तुम्हारी मर्जी भी नहीं चलेगी। यहां तो हम सबने अपनी मर्जी
उसकी मर्जी में डुबो दी। वह जो करवाता है, होता है। और उस पर छोड़ने का एक
मजा है।
अगर तुम इस संन्यासियों के परिवार का थोड़ा अवलोकन करोगे, तो बहुत
चौंकोगे। न हम किसी से भीख मांगने जाते, न हम किसी से दान मांगते, हम किसी
के सामने हाथ नहीं फैलाते। उसके सामने फैला दिए हाथ, अब किसके सामने हाथ
फैलाने! और अड़चन आती ही नहीं। सब होता चला जाता है। आज एक हजार संन्यासी
आश्रम के हिस्से हैं। और मेरे संन्यासी कोई दीनता और दरिद्रता से रहने में
भरोसा नहीं रखते। जो मनुष्य के लिए बिल्कुल जरूरी है, मिलना ही चाहिए।
मस्ती से रहते हैं, आनंद से रहते हैं, उत्सव से रहते हैं।
उस पर छोड़ते ही कुछ अनूठा घटित होना शुरू होता है। अभी पांच—सात
दिन पहले लक्ष्मी को दस लाख रुपयों की जरूरत थी। वह मुझसे कहने लगी कि दस
लाख रुपए एकदम से कहां से आएंगे? मैंने कहा, जैसे और आते हैं, वैसे ये भी
आएंगे! और आ गए! लक्ष्मी भी चौंकी! कि एक व्यक्ति परसों ही आया
स्विट्जरलैंड से! और उसने कहा कि मैंने दस लाख रुपए जमा कर दिए हैं आश्रम
के नाम से, स्विट्जरलैंड में! पूरे दस लाख रुपए। लक्ष्मी ने पूछा, किसलिए?
किसने तुमसे कहा? उसने कहा, किसी ने मुझसे कहा नहीं, लेकिन अचानक मुझे लाभ
हो गया। जिसकी कोई अपेक्षा भी नहीं थी, जिसके लिए मैंने कोई प्रयास भी नहीं
किया था, तो मैंने सोचा कि जिसके लिए मैंने कोई प्रयास नहीं किया, जिसके
लिए मेरी कोई अपेक्षा भी नहीं थी, जो आकस्मिक रूप से आ गया है, वह अपना
नहीं है। इसे कहीं भी भगवान के काम में लगा देना चाहिए।
जीवन इस ढंग से भी जीआ जा सकता है। सब उस पर छोड़कर भी जीआ जा सकता है।
और यह तो मलूकदास की श्रृंखला चल रही है, तुम्हें उनका वचन याद ही होगा सभी
को याद है, उसी एक वचन के कारण मलूकदास को लोग जानते हैं, और तो उनके वचन
लोगों को मालूम भी नहीं हैं अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम; दास मलूका
कह गए, सबके दाता राम।
राम दुवारे जो मरे
ओशो
No comments:
Post a Comment