वे नहीं मिल सकते। वे कभी नहीं मिल सकते, शारीरिक रीति से भी नहीं। वे कई बार मिलने के बहुत करीब भी आ गए। एक बार वे दोनों एक ही सराय में ठहरे हुए थे–एक हिस्से में महावीर और दूसरे हिस्से में बुद्ध, परन्तु कोई मिलना नहीं होता, मुलाकात नहीं होती। वे उन्हीं गांवों से कई बार गूजरें अपनी जिंदगी में। वे बिहार, जो कि बहुत छोटा सा प्रांत है, उसमें रहे। वे उन्हीं गांवों में गए भी। वे उन्हीं गांवों में रहे भी। उन्होंने उन्हीं लोगों से बात भी की। उनके अनुयायी बुद्ध से महावीर और महावीर से बुद्ध के बीच आते जाते रहे। बहुत विरोध भी रहा, बहुत बार लोगों का धर्म परिवर्तन भी हुआ, परन्तु वे कभी न मिले। वे मिल ही नहीं सकते। उनके अपने मूल स्वरूप ही अब कुछ ऐसे शिखर हैं कि उनका मिलना अब संभव नहीं है। यहां तक कि यदि वे एक-दूसरे के आस-पास में भी बैठे हों, तो भी मिलना नहीं हो सकता। यहां तक कि हमें वे मिलते हुए भी नजर आए और छाती से छाती लगाए हुए दिखलाई पड़े, तो भी वे नहीं मिल सकते। उनकी मीटिंग असंभव हो गई है। वे इतने अपूर्व हैं, वे इतने शिखर की तरह हैं, कि आंतरिक मिल संभव नहीं हैं। इसलिए फिर बाह्य मिलन का क्या अर्थ है? वह बेकार है, वह अर्थहीन है।
यह बात हमें समझ में नहीं आती। हम सोचते हैं कि दो अच्छे आदमी आपस में मिलने ही चाहिए। हमारे लिए यह जो न मिलने वाला रुख है, यह ठीक नहीं है। वास्तव में, कोई न मिलने, का भाव अभाव रुख नहीं है बस वह असंभव है। ऐसा नहीं है कि बुद्ध महावीर से मिलना न चाहेंगे। ऐसा नहीं है कि महावीर मना करेंगे। बस वह सिर्फ असंभव है। बस, वह हो नहीं सकता। कोई रुख नहीं है वैसा। इसलिए वास्तव में यह आश्चर्यजनक बात है। एक ही गांव में रहे, वे एक ही सराय में ठहरे, परन्तु न तो बौद्धों के साहित्य में और न जैनों के शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख है कि किसी ने कहा हो कि वे मिले–एक भी उल्लेख नहीं है! यहां तक कि ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं है कि किसी ने सुझाव दिया हो कि यह अच्छा होगा यदि वे दोनों मिलें। यह वाकई आश्चर्यजनक बात है। दोनों में से किसी ने भी मना नहीं किया है। न तो बुद्ध ने, न महावीर ने कभी ऐसा कहा है कि मैं नहीं मिलूंगा। फिर वे क्यों नहीं मिले? क्योंकि वह एक असंभावना है वह संभव ही नहीं है। हमारे लिए, जो कि पृथ्वी पर खड़े हैं, बड़ा अजीब लगता है, परन्तु यदि आप शिखर पर खड़े हों, तो कुछ अजीब नहीं लगेगा। क्यों नहीं हिमालय के एक शिखर से कहते कि दूसरे शिखर से मिले? वे इतने निकट हैं–इतने पास हैं। वे क्यों नहीं मिल सकते! उनके मूल स्वरूप, उनका अपना शिखर स्वरूप ही यह असंभावना उत्पन्न करता है। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि वे कभी न मिले हों, बल्कि वे मिल ही नहीं सकते। वे कभी न मिलेंगे। वह द्वार ही बंद हो गया। और फिर भी मैं कहता हूं कि वे एक हैं। कितने भी शिखर एक दूसरे से भिन्न हों, अपनी जड़ों में वे सदैव एक हैं। वे दोनों पृथ्वी के एक ही हिस्से से जुडे हैं, लेकिन केवल जड़ों में ही वे एक हैं।
यहां पर एक बात और सोचने जैसी है। चूंकि वे जड़ में एक ही हैं, इसलिए कोई ऐसी आवश्यकता नहीं है कि वे मिलें। केवल वे ही, जो कि जड़ों में एक नहीं हैं मिलने का प्रयत्न करेंगे, क्योंकि आधारित वे जानते हैं कि कोई मिलने नहीं है। मुझसे कई लोगों ने पूछा कि मैं क्यों सभी धर्मों का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं करता? गाँधीजी ने किया है, कई थियोसाफी के लोगों ने किया है–उन्होंने सभी धर्मों का महान समन्वय करने का प्रयत्न किया है। मैं कहता हूं कि यदि आप प्रयत्न करते हैं, तो आप यह बतलाते हैं कि कोई समन्वय नहीं है ऐसा प्रयत्न नहीं बतलाता है कि कहीं पर सभी धर्म विभाजित हैं। मैं ऐसा बिलकुल भी अनुभव नहीं करता। अपने मूल में, जड़ों में वे सब एक हैं। शिखर पर, चोटी पर वे बंटे हुए हैं, और वे बंटे हुए होने चाहिए। प्रत्येक शिखर की अपनी सुंदरता है। उसे क्यों नष्ट करें? क्यों एक असत्य बात खड़ी करें, जो कि नहीं है! एक शिखर एक शिखर ही रहे–अकेला, अविभाज्य। पृथ्वी पर वे एक हैं। इसलिए कुरान को केवल कुरान ही होना चाहिए। कुछ भी गीता अथवा रामायण में से उस पर आरोपित नहीं करना चाहिए—कुछ भी अंतर-प्रवेश नहीं, कोई मिश्रण नहीं होना चाहिए। कुरान अपनी पूरी शुद्धता में कुरान ही है। वह एक शिखर है, एक अनुपम शिखर, क्यों उसे नष्ट करें?
यह आरोपण न करना तभी संभव है, जबकि आप जड़ों में, पृथ्वी में उनकी गहरी एकता से अवगत हैं। सभी धर्म अपनी मूल जड़ों में एक ही हैं, परन्तु अपनी अभिव्यक्ति में कभी भी नहीं और वे होने भी नहीं चाहिए। और इस तरह संसार और अधिक विकास करता है। जैसे-जैसे मनुष्य चेतना ज्यादा चेतन होती है, वह ज्यादा अखंड होती है। तब और अधिक धर्म होंगे, न कि कम। अंततः यदि प्रत्येक मनुष्य एक शिखर हो जाए, तो उतने ही धर्म होंगे, जितने कि मनुष्य होंगे। क्या जरूरत है किसी को मोहम्मद का अनुगमन करने की, यदि वह स्वयं ही एक शिखर हो सकता हो? क्या आवश्यकता है किसी को कृष्ण का अनुकरण करने की, यदि वह स्वयं ही एक शिखर हो सके? यह बड़ा दुर्भाग्य है कि किसी को भी किसी अन्य का अनुकरण करना पड़ता है।
यह एक अनिवार्य बुराई है। यदि आप शिखर नहीं हो सकते, तो आपको अनुकरण करना पड़ेगा, परन्तु अनुकरण इस प्रकार करें कि जितनी जल्दी हो सके आप स्वयं ही एक शिखर हो जाएं, वही अच्छा है। हमारे पास एक सुंदर संसार होगा, एक बहत्तर जगत और अधिक मानवता के साथ, यदि प्रत्येक एक अपूर्व शिखर हो जाए। परन्तु वह शिखर केवल अविभाज्यता के द्वारा ही आ सकता है अहंकार को व झूठे व्यक्तित्व को गला कर अपने सच्चे स्वभाव में केंद्रित होने से अपने सच्चे शुद्ध स्वरूप में स्थित होने से ही वह उपलब्ध हो सकता है। तब आप एक घाटी की भांति हो जाते हैं, और तब प्रति ध्वनियां होती हैं।
ओशो
Beautiful story
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