धर्म कोई कर्म-कांड नहीं है, कोई शास्त्र-विधि नहीं है। वास्तव में, जब
कोई धर्म मृत हो जाता है, वह कर्म-कांड हो जाता है। धर्म का मृत शरीर ही
कर्म-कांड हो जाता है, परन्तु सब जगह कर्म-कांड ही पाया जाता है। यदि आप
धर्म को खोजने जाएं, तो आप कर्म-कांड ही पाएंगे। ये सारे नाम–हिंदू,
मुसलमान, ईसाई–ये धर्मों के नाम नहीं हैं। ये विशेष कर्म-कांडो के नाम हैं।
कर्म-कांड से मेरा तात्पर्य है कि कुछ बाहर की ओर किया जाए ताकि आंतरिक
क्रांति पैदा हो सके। यह ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह
विश्वास, कि कोई बाह्य क्रिया आंतरिक क्रांति उत्पन्न कर सकती है,
कर्म-कांडो को जन्म देता है। यह विश्वास क्यों पैदा होता है? यह इसलिए
पैदा होता है, क्योंकि यह एक बिलकुल प्राकृतिक घटना है। जब कभी आंतरिक
क्रांति होती है, जब कभी अंतस में परिवर्तन होता है, जब कभी भीतर रूपांतरण
होता है, तो
उसके पीछे-पीछे बहुत सी बाह्य बातें व चिन्ह प्रकट होते हैं। ये बाहरी चिन्ह अपरिहार्य हैं क्योंकि अंतस में जो होता है, वह बाहर से जुड़ा होता है। भीतर ऐसा कुछ भी घटित नहीं हो सकता, जो कि बाह्य को प्रभावित न करे। उसका प्रभाव होगा, परिणाम होंगे, परछाइयाँ बनेंगी, बाह्य व्यवहार पर भी। यदि आप भीतर क्रोध अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर विशेष भाव-भंगिमा बनाने लगता है। यदि आप भीतर शांति का अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर दूसरी भाव-भंगिमा बनाने लगता है। जब भीतर शांति होती है, तो शरीर इस शांति को, उस आंतरिक शांति, को व स्थिरता को कई प्रकार से प्रदर्शित करता है। परन्तु यह सदैव द्वितीय बात है, प्राथमिक नहीं बाह्य परिणामस्वरूप है, यह कारण नहीं हैं।
यदि बुद्ध अभी यहां हों, तो हम यह नहीं देख सकते कि उनके भीतर क्या हो रहा है। परन्तु हम यह देख सकते हैं और देखेंगे कि उनके बाहर क्या हो रहा है। बुद्ध के स्वयं के लिए भीतर जो है कारण है और बाह्य है परिणाम। हमारे लिए, बाह्य पहले होगा देखने को और तब अंतस के बारे में अनुमान लगाया जाएगा। इसलिए दर्शकों के लिए बाह्य, द्वितीय आधारभूत बन जाता है, प्राथमिक बन जाता है। हम कैसे जान सकते हैं कि बुद्ध की अंतश्चेतना में क्या हो रहा है? हम उनके शरीर को देख सकते हैं उनके चलने-फिरने को, उनके हाव-भावों को। वे सब अंतस से संबंधित हैं। वे कुछ दर्शाते हैं, परन्तु वे कारण की तरह नहीं, वरन परिणाम स्वरूप हैं।
यदि आंतरिक है, तो बाह्य भी पीछे-पीछे आएगा। इसका उल्टा ठीक नहीं है। यदि बाह्य है तो अनिवार्य नहीं है कि उसका अनुगमन करेगा। कोई जरूरी नहीं! उदाहरण के लिए यदि मैं क्रोध में हूं, तो मेरा शरीर क्रोध प्रकट करेगा, परन्तु मैं अपने शरीर में क्रोध दिखला सकता हूं बिना भीतर बिलकुल भी क्रोधित हुए। एक अभिनेता यही कर रहा है। वह अपनी आंखों से क्रोध प्रकट कर रहा है, हाथों से क्रोध प्रकट कर रहा है। वह प्रेम व्यक्त कर रहा है। भीतर बिना जरा भी प्रेम अनुभव किए। वह भय प्रकट कर रहा है, उसका सारा शरीर कांप रहा है, हिल रहा है, परन्तु भीतर कोई भय नहीं। बाह्य हो सकता है बिना आंतरिक के। हम उसे आरोपित कर सकते हैं। कोई कारण, आधार, आवश्यकता अथवा अनिवार्यता नहीं है कि अंतस बाह्य का अनुगमन करे। बाह्य हमेशा अंतस का अनुगमन करता है, परन्तु इसका उल्टा कभी नहीं होता। कर्म-कांड इसी भ्रम के कारण पैदा होता है।
ओशो
उसके पीछे-पीछे बहुत सी बाह्य बातें व चिन्ह प्रकट होते हैं। ये बाहरी चिन्ह अपरिहार्य हैं क्योंकि अंतस में जो होता है, वह बाहर से जुड़ा होता है। भीतर ऐसा कुछ भी घटित नहीं हो सकता, जो कि बाह्य को प्रभावित न करे। उसका प्रभाव होगा, परिणाम होंगे, परछाइयाँ बनेंगी, बाह्य व्यवहार पर भी। यदि आप भीतर क्रोध अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर विशेष भाव-भंगिमा बनाने लगता है। यदि आप भीतर शांति का अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर दूसरी भाव-भंगिमा बनाने लगता है। जब भीतर शांति होती है, तो शरीर इस शांति को, उस आंतरिक शांति, को व स्थिरता को कई प्रकार से प्रदर्शित करता है। परन्तु यह सदैव द्वितीय बात है, प्राथमिक नहीं बाह्य परिणामस्वरूप है, यह कारण नहीं हैं।
यदि बुद्ध अभी यहां हों, तो हम यह नहीं देख सकते कि उनके भीतर क्या हो रहा है। परन्तु हम यह देख सकते हैं और देखेंगे कि उनके बाहर क्या हो रहा है। बुद्ध के स्वयं के लिए भीतर जो है कारण है और बाह्य है परिणाम। हमारे लिए, बाह्य पहले होगा देखने को और तब अंतस के बारे में अनुमान लगाया जाएगा। इसलिए दर्शकों के लिए बाह्य, द्वितीय आधारभूत बन जाता है, प्राथमिक बन जाता है। हम कैसे जान सकते हैं कि बुद्ध की अंतश्चेतना में क्या हो रहा है? हम उनके शरीर को देख सकते हैं उनके चलने-फिरने को, उनके हाव-भावों को। वे सब अंतस से संबंधित हैं। वे कुछ दर्शाते हैं, परन्तु वे कारण की तरह नहीं, वरन परिणाम स्वरूप हैं।
यदि आंतरिक है, तो बाह्य भी पीछे-पीछे आएगा। इसका उल्टा ठीक नहीं है। यदि बाह्य है तो अनिवार्य नहीं है कि उसका अनुगमन करेगा। कोई जरूरी नहीं! उदाहरण के लिए यदि मैं क्रोध में हूं, तो मेरा शरीर क्रोध प्रकट करेगा, परन्तु मैं अपने शरीर में क्रोध दिखला सकता हूं बिना भीतर बिलकुल भी क्रोधित हुए। एक अभिनेता यही कर रहा है। वह अपनी आंखों से क्रोध प्रकट कर रहा है, हाथों से क्रोध प्रकट कर रहा है। वह प्रेम व्यक्त कर रहा है। भीतर बिना जरा भी प्रेम अनुभव किए। वह भय प्रकट कर रहा है, उसका सारा शरीर कांप रहा है, हिल रहा है, परन्तु भीतर कोई भय नहीं। बाह्य हो सकता है बिना आंतरिक के। हम उसे आरोपित कर सकते हैं। कोई कारण, आधार, आवश्यकता अथवा अनिवार्यता नहीं है कि अंतस बाह्य का अनुगमन करे। बाह्य हमेशा अंतस का अनुगमन करता है, परन्तु इसका उल्टा कभी नहीं होता। कर्म-कांड इसी भ्रम के कारण पैदा होता है।
ओशो
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