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Sunday, July 26, 2015

विराट का अनुभव

विराट का अनुभव—मुश्किल! पर अनुभव से भी ज्यादा मुश्किल है अभिव्यक्ति। जान लेना बहुत मुश्किल—जान देना और भी ज्यादा मुश्किल! क्योंकि व्यक्ति मिट सकता है… बूंद खो सकती है सागर में, और अनु भव कर ले सकती है सागर का, लेकिन दूसरी बूंदों को कैसे कहें, जिन्होंने मिटना नहीं जाना, जो अभी अपनी पुरानी सीमाओं में आबद्ध हैं… उनको कैसे कहें!
एक पक्षी उड़ सकता है खुले आकाश में अपने पिंजरे में बंद हैं, गहरे में उसकी अनुभूति होती है—लेकिन अनुभव में कैसे उसे कोई बांधै!
शब्‍दों में बैंधते ही आकाश-आकाश नहीं रह जाता। शब्‍दों में बंधते ही विराट नहीं रह जाता। इधर शब्‍द में बांधा कि उधर अनुभव झूठा हुआ।
इसलिए बहुत हैं जो जानकर चुप रह गये हैं। बहुत हैं जो जानकर गूंगे हो गये हैं। गूंगे थे नहीं, जानने ने गूंगा बना दिया। बहुत थोड़े- से लोगों नेहिम्मत की है—दूर की खबर तुम तक पहुंचाने की। वह हिम्मत दाद देने के योग्य हैं। क्योंकि असंभव है चेष्टा। माध्यम इतने अलग हैं।
समझें जैसे देखा सौंदर्य आंख से, और फिर किसी को बताना हो और वह अंधा हो, तो क्या करियेगा, फिर कोई और माध्यम चुनना पड़ेगा, आंख क माध्यम तो काम न देगा। तुमने तो आंख से देखा था सौंदर्य सुबह का, या रात का तारों से भरे आकाश का, अंधे को समझाना है, आंख का माध्यम तो काम नहीं देगा, तो सितार पर गीत बजाओ! धुन बजाओ! नाचो! पैरों में पूंघर बांधो! लेकिन माध्यम अलग हो गया : जो देखा था, वह सुनाना पड़ रहा है।
तो जो देखा था, वह कैसे सुनाया जा सकता है, जो आंख ने जाना, वह कानर कैसे जानेगा, इससे भी ज्यादा कठिन है बात सत्यस के अनुभव की। क्योंकि अनुभव होता है विर्धिचार में और अभिव्यक्ति देनी पड़ती है विचार में। विचार सब झूठा कर देते हैं।
फिर भी हिम्मतवर लोगों ने चेष्टा की है : करुणा के कारण, शायद किसी के मन में थोड़ी भनक पड़ जाए, न सही पूरी बात, न सही पूरा आकाश, थोड़ी-सी मुक्ति की सुगबुगाहट आ जाए, थोड़ी-सी पुलक पैदा हो जाए, न सही पूरा दृश्य स्पष्ट हो, प्यास ही जग जाए, सत्य न बताया जा सके न सही, लेकिन सत्य की तरफ जाने के लिए इशारा, इंगित किया जा सके–उतना भी क्या कम है।

ओशो 

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