अंतिम बात, मैं न तो हिंदू हूं, न मुसलमान हूं, और न ही ईसाई हूं।
मैं एक बेघरबार घुमक्कड़ हूं। मैं उपनिषदों की परंपरा से बाह्य रूप से जुड़ा
हुआ नहीं हूं, इसलिए मेरा उपनिषदों में कुछ लगाया हुआ, व्यस्त स्वार्थ
नहीं है। जब कोई हिंदू आलोचना करता है अथवा जब भी कोई हिंदू उपनिषदों के
बारे में सोचता है, तब उसका उसमें कुछ इनवेस्टमेंट होता है, लगाया हुआ होता
है। जब एक मुसलमान उपनिषदों के लिए लिखता है, तो उसके विरोध में उसका कुछ
लगाया हुआ होता है। वे दोनों ही सही व प्रामाणिक नहीं हो सकते। यदि कोई
हिंदू है, तो वह उपनिषदों के बाबत सच्चा नहीं हो सकता: यदि कोई मुसलमान है,
तो वह भी उपनिषदों के बार में सच्चा नहीं हो सकता। वह झूठा होगा ही।
परन्तु यह धोखा इतना सूक्ष्म होता है कि इसका हमें पता ही नहीं चलता।
ओशो
ओशो
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