मुझे बहुत से मित्रों ने आकर कहा है कि बात कुछ गहरी है और हमारे सिर के
ऊपर से निकल जाती है। तो मैंने उनसे कहा कि अपने सिर को थोड़ा ऊंचा करो
ताकि सिर के ऊपर से न निकल जाये। जिनकी आंखें संसार के जरा भी ऊपर उठती
हैं, उनके सिर भी ऊंचे हो जाते हैं। और तब ये बातें सिर के ऊपर से नहीं
निकलेंगी, हृदय के गहरे में प्रवेश कर जायेंगी। ये बातें गहरी कम, ऊंची
ज्यादा हैं। असल में ऊंचाई ही गहराई भी बन जाती है। और ऊंची कोई अपने आप
में नहीं है। हम बहुत नीचे, संसार में गड़े हुए खड़े हैं, इसलिए ऊंची मालूम
पड़ती है। ऊंचाई सापेक्ष है, रिलेटिव है।
और एक बात ध्यान रहे कि संसार से थोड़ा ऊपर न उठें, संसार से ऊपर थोड़ा
देखें। रहें संसार में, कोई हर्ज नहीं। तो जमीन पर खड़े होकर भी आकाश के
तारे देखे जा सकते हैं। खड़े रहें संसार में, लेकिन आंखें थोड़ी ऊपर उठ जायें
तो ये सारी बातें बड़ी सरल दिखाई पड़नी शुरू होती हैं। वर्ना संसार की बातें
रोज कठिन होती चली जाती हैं। कठिन होंगी ही, क्योंकि जिनका अंतिम फल सिवाय
दुख के, और जिनकी अंतिम परिणति सिवाय अज्ञान के, और जिनका अंतिम निष्कर्ष
सिवाय गहन अंधकार के कुछ भी न होता हो, वे बातें सरल नहीं हो सकतीं, जटिल
ही होंगी। चीजें दिखाई कुछ पड़ती हैं, हैं कुछ, और भ्रम कुछ पैदा होता है,
सत्य कुछ और है। लेकिन हम संसार में इस भांति खोए होते हैं कि अन्य कोई
सत्य भी हो सकता है, इसकी हमें कल्पना भी नहीं उठती।
ओशो
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