कोई भी पशु मृत्यु से भयभीत नहीं है, क्योंकि किसी भी पशु की भविष्य के
लिए कोई योजना नहीं होती। इसके अलावा कोई भी दूसरा कारण नहीं है–भविष्य के
लिए कोई योजना नहीं। भविष्य नहीं है, अतः मृत्यु नहीं है। मृत्यु से क्यों
भयभीत हों, यदि भविष्य के लिए कोई योजना नहीं है? मृत्यु से कुछ भी
छिन्न-भिन्न नहीं होगा। जितनी बड़ी योजनाएं होती हैं, उतना ही अधिक भय
होता है। मृत्यु, वास्तव में, इस बात का भय नहीं है कि आप मर जाएंगे बल्कि
इस बात का भय है कि आप अपरिपूर्ण ही मर जाएंगे और यह संभव नहीं है कि
इच्छाओं को परिपूर्णता तक ले जाया जा सके और मृत्यु कभी भी आ सकती है।
यदि मैं अपरिपूर्ण ही मरता हूं, तो सचमुच भय है। मैं अभी तक अपरिपूर्ण हूं। मैंने एक क्षण भी परिपूर्णता का नहीं जाना, और मृत्यु आ सकती है। अंत मैं निरर्थक ही जीया। जिंदगी बेकार गई, बिना किसी शिखर के, बिना एक भी क्षण सत्य, शांति, सौंदर्य, मौन के जाने। मैं सिर्फ एक अर्थहीन निष्प्रयोजनता में जीया, और मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। तब मृत्यु एक भय बन जाती है। यदि मैं परिपूर्ण हूं, यदि मैंने वह जाना है जो कि जीवन किसी को अवगत करा सकता है, यदि मैंने वह जाना है जो कि वस्तुतः जीवंत है, यदि मैंने एक भी क्षण सौंदर्य का, प्रेम का, परिपूर्णता का जाना है तो फिर मृत्यु का भय कहां है? कहां है भय? मृत्यु आ सकती है वह कुछ भी छिन्न-भिन्न नहीं कर सकती। वह कुछ भी नहीं कर सकती। मृत्यु सिर्फ भविष्य को गड़बड़ कर सकती है। मेरे लिए अब भविष्य नहीं है। मैं इसी क्षण भरा हुआ हूं। तब मृत्यु कुछ नहीं कर सकती। मैं उसे स्वीकार कर सकता हूं। यहां तक कि वह आनंद भी साबित हो सकती है। इसलिए वह, जो कि मृत्यु के लिए खुला है, परमात्मा के लिए, भी खुला हो सकता है। खुला होने का मतलब होता है अभय। निर्दोषता आपको खुलापन, निर्भयता, एक जीते न जा सकने की स्थिति बिना किसी भी सुरक्षा के प्रबंध के दे देती है। वही आवाहन है।
और यदि आप ऐसे क्षण में हैं तब कि मृत्यु भी यदि आए तो आप उसका स्वागत कर सकते हैं, उसे गले लगा सकते हैं, उसका आतिथ्य कर सकते हैं तो फिर आपने परमात्मा का आवाहन किया है। अब मृत्यु कभी भी नहीं आ सकती: केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा होगा। मृत्यु अब वहां नहीं होगी, केवल परमात्मा ही होगा।
यदि मैं अपरिपूर्ण ही मरता हूं, तो सचमुच भय है। मैं अभी तक अपरिपूर्ण हूं। मैंने एक क्षण भी परिपूर्णता का नहीं जाना, और मृत्यु आ सकती है। अंत मैं निरर्थक ही जीया। जिंदगी बेकार गई, बिना किसी शिखर के, बिना एक भी क्षण सत्य, शांति, सौंदर्य, मौन के जाने। मैं सिर्फ एक अर्थहीन निष्प्रयोजनता में जीया, और मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। तब मृत्यु एक भय बन जाती है। यदि मैं परिपूर्ण हूं, यदि मैंने वह जाना है जो कि जीवन किसी को अवगत करा सकता है, यदि मैंने वह जाना है जो कि वस्तुतः जीवंत है, यदि मैंने एक भी क्षण सौंदर्य का, प्रेम का, परिपूर्णता का जाना है तो फिर मृत्यु का भय कहां है? कहां है भय? मृत्यु आ सकती है वह कुछ भी छिन्न-भिन्न नहीं कर सकती। वह कुछ भी नहीं कर सकती। मृत्यु सिर्फ भविष्य को गड़बड़ कर सकती है। मेरे लिए अब भविष्य नहीं है। मैं इसी क्षण भरा हुआ हूं। तब मृत्यु कुछ नहीं कर सकती। मैं उसे स्वीकार कर सकता हूं। यहां तक कि वह आनंद भी साबित हो सकती है। इसलिए वह, जो कि मृत्यु के लिए खुला है, परमात्मा के लिए, भी खुला हो सकता है। खुला होने का मतलब होता है अभय। निर्दोषता आपको खुलापन, निर्भयता, एक जीते न जा सकने की स्थिति बिना किसी भी सुरक्षा के प्रबंध के दे देती है। वही आवाहन है।
और यदि आप ऐसे क्षण में हैं तब कि मृत्यु भी यदि आए तो आप उसका स्वागत कर सकते हैं, उसे गले लगा सकते हैं, उसका आतिथ्य कर सकते हैं तो फिर आपने परमात्मा का आवाहन किया है। अब मृत्यु कभी भी नहीं आ सकती: केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा होगा। मृत्यु अब वहां नहीं होगी, केवल परमात्मा ही होगा।
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