अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम और अप्रमाद संन्यास की
कला के आधारभूत सूत्र हैं। और संन्यास एक कला है। समस्त जीवन की एक कला
है। और केवल वे ही लोग संन्यास को उपलब्ध हो पाते हैं जो जीवन की कला में
पारंगत हैं। संन्यास जीवन के पार जाने वाली कला है। जो जीवन को उसकी
पूर्णता में अनुभव कर पाते हैं, वे अनायास ही संन्यास में प्रवेश कर जाते
हैं। करना ही होगा। वह जीवन का ही अगला कदम है। परमात्मा संसार की सीढ़ी पर
ही चढ़कर पहुंचा गया मंदिर है।
तो पहली बात आपको यह स्पष्ट कर दूं कि संसार और संन्यास में कोई भी
विरोध नहीं है। वे एक ही यात्रा के दो पड़ाव हैं। संसार में ही संन्यास
विकसित होता है और खिलता है। संन्यास संसार की शत्रुता नहीं है, बल्कि
संन्यास संसार का प्रगाढ़ अनुभव है। जितना ही जो संसार का अनुभव कर पायेगा,
वह पाएगा कि उसके पैर संन्यास की ओर बढ़ने शुरू हो गए हैं। जो जीवन को ही
नहीं समझ पाते, जो संसार के अनुभव में ही गहरे नहीं उतर पाते, वे ही केवल
संन्यास से दूर रह जाते हैं।
तो इसलिए पहली बात मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि मेरी दृष्टि में संन्यास
का फूल संसार के बीच में ही खिलता है। उसकी संसार से शत्रुता नहीं। संसार
का अतिक्रमण है संन्यास। उसके भी पार चले जाना संन्यास है। सुख को
खोजते-खोजते जब व्यक्ति पाता है कि सुख मिलता नहीं, वरन जितना सुख को खोजता
है उतने ही दुख में गिर जाता है; शांति को चाहते-चाहते जब व्यक्ति पाता है
कि शांति मिलती नहीं, वरन शांति की चाह और भी गहरी अशांति को जन्म दे जाती
है; धन को खोजते-खोजते जब पाता है कि निर्धनता भीतर और भी घनीभूत हो जाती
है; तब जीवन में संसार के पार आंख उठनी शुरू होती है। वह जो संसार के पार
आंखों का उठना है, उसका नाम ही संन्यास है।
ओशो
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