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Sunday, July 26, 2015

असली धन

तुम अपने को प्रेम करते हो–ठीक, स्वाभाविक है। इस प्रेम के कारण तुम ऐसी चीजों को प्रेम करते हो जो तुम्हारे स्वभाव के विपरीत हैं उनसे तुम दुख पाते हो। चाहते सुख हो, मिलता दुख है। आकांक्षा में भूल नहीं है। आकांक्षा को प्रयोग में लाने में तुम ठीक-ठीक समझदारी का प्रयोग नहीं कर रहे हो।
बुद्ध भी स्वार्थी हैं, कबीर भी, कृष्ण भी–लेकिन वे परम स्वार्थी हैं। वे भी अपना साथ रहे हैं आनंद, लेकिन इस ढंग से साथ रहे हैं कि मिलता है। तुम इस ढंग से साथ रहे हो कि मिलता कभी नहीं, साधते सदा हो, मिलता कभी नहीं।
तुम कुछ ऐसी चीजों से चीजों से अनुराग करने लगते हो जो कि तुम्हारे स्वभाव के विपरीत है, जैसे समझो, तुम धन को प्रेम करने लगे, तो तुम अपने स्वभाव के विपरीत जा रहे हो। क्योंकि धन है जड़, तुम हो चैतन्य। चैतन्य को प्रेम करो, जड़ को मत करो, अन्यथा जड़ता बढ़ेगी। और चैतन्य अगर जड़ता में फंसने लगे तो कैसे सुखी होगी ,     धन का उपयोग करो, प्रेम मत करो। प्रेम तो चैतन्य से करो।
तुम पद की पूजा करते हो। पद तो बाहर है। तुम पद के आकांक्षी हो। लेकिन पद तो बाहर है, तुम भीतर हो, तो तुम में और तुम्हारे पद में कभी तालमेल न हो पाएगा, तुम भीतर रहोगे। पद बाहर रहेगा। कोई उपाय नहीं है, भीतर तो तुम दीनहीन ही बने रहोगे। कितना ही धन इकट्ठा कर लो अपने चारों तरफ, कितने ही बड़े पद पर बैठ जाओ, कितना ही बड़ा सिंहासन बना लो–तुम्हारे भीतर सिंहासन न जा सकेगा, न धन जा सकेगा, न पद जा सकेगा। वहां तो तुम जैसे पहले थे वैसे ही अब भी रहोगे।
भिखारी को राजसिंहासन पर बिठा दो, क्या फर्क पड़ेगा! बाहर धन होगा, शायद भूल भी जाए बाहर के धन में कि भीतर अभी भी निर्धन हूं, तो यह तो और आत्मघाती हुआ। यह स्वार्थ न हुआ, यह तो कता हुई। असली धन खोजो–असली धन भीतर है।

ओशो 

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