एक बुंद से साहेब मदिल बनावल हो।
बिना नेव के मदिल बहु कल लागल हो।।
इसके दो अर्थ हैं। एक तो अर्थ है, बूंद का अर्थ होता है : वीर्य बिंदु। परमात्मा ने चमत्कार किया है, एक छोटे से वीर्य बिंदु से… सच तो यह है पूरे बिंदु से भी नहीं, क्योंकि एक वीर्य के बिंदु में करोड़ों जीवाणु होते हैं, करोड़ों कोष्ठ होते हैं, सैल होते हैं। एक सैल से ही जीवन निर्मित होता है, पूरे बिंदु से नहीं। एक बार के सं भोग में करीब एक करोड़ सैल होते हैं। एक करोड़ व्यक्ति पैदा हो सकते थे, उनमें से एक, वह भी हमे श नहीं, कभी कभार पैदा होता है। जो कोष्ठ जीवन बनता है, वह आंख से, नंगी आंख से तो देखा ही नहीं जा सकता; उसके लिए खुर्दबीन चाहिए।
बड़ा चमत्कार किया है! एक अदृशय छोटे से कण से सारा जीवन निर्मित हुआ है। देह, मन, तन सब उससे फैले हैं। यह तो एक अर्थ है। एक बूंद से साहेब मदिल बनावल हो। यह जीवन का मंदिर बनाया है। एक छोटी सी ईंट है, उस पर सारा मंदिर खड़ा है।
बिना नेव के मदिल, बहु कल लागल हो।
बड़ा चमत्कार मालूम होता है, बड़ा विस्मय मालूम होता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं है उस दूसरे चमत्कार के मुकाबले। क्योंकि गुरु ध्यान की एक ही छोटी बूंद से, फिर एक मंदिर बनाता है। वही मंदिर परमात्मा का आवास बनता है। एक छोटी सी बूंद.. .अदृश्य बूंद ध्यान की, गुरु से शिष्य में गिर जाती है। जो झुका है, उसमें गिर जाती है। बस उसी बूंद के आसपास मंदिर बनना शुरू हो जाता है।
इसलिए श्रद्धा को इतना प्रशंसित किया गया है, इतना गुण गाया गया है श्रद्धा का। क्योंकि श्रद्धा के ही किसी क्षण में बूंद सरक सकती है गुरु से शिष्य में। अगर शिष्य जरा भी संघर्षशील है, विवादी है, जरा भी संदेह से भरा है, संभ्रम में है, तो अपनी सुरक्षा करेगा, बूंद प्रवेश नहीं कर पाएगी।
जैसे स्त्री पुरुष के बीच संभोग घटता है, उस संभोग में पुरुष से जीवन ऊर्जा स्त्री में प्रवेश करती है ,ठीक वैसा ही संभोग गुरु और शिष्य के बीच बड़े आत्मिक तल पर घटता है। श्रद्धा हो परिपूर्ण, शिष्य बिल्कुल झुका हो, जरा भी संदेह न हो, भरोसा पूरा हो, तो ही वह परम संभोग घट सकता है। उसके घटते ही मंदिर बनना शुरू हो जाता है। कब बूंद सरकती है, इसका तो पता भी नहीं चलता, क्योंकि अदृश्य है। जब मंदिर बन जाता है तभी पता चलता है। तभी लौट कर शिष्य देखता है कि जरूर कभी बूंद प्रवेश कर गयी होगी। कब पहली ईंट रखी गयी, पता नहीं-और बिना नींव के मंदिर बन जाता है! एक चमत्कार है।
ओशो
बिना नेव के मदिल बहु कल लागल हो।।
इसके दो अर्थ हैं। एक तो अर्थ है, बूंद का अर्थ होता है : वीर्य बिंदु। परमात्मा ने चमत्कार किया है, एक छोटे से वीर्य बिंदु से… सच तो यह है पूरे बिंदु से भी नहीं, क्योंकि एक वीर्य के बिंदु में करोड़ों जीवाणु होते हैं, करोड़ों कोष्ठ होते हैं, सैल होते हैं। एक सैल से ही जीवन निर्मित होता है, पूरे बिंदु से नहीं। एक बार के सं भोग में करीब एक करोड़ सैल होते हैं। एक करोड़ व्यक्ति पैदा हो सकते थे, उनमें से एक, वह भी हमे श नहीं, कभी कभार पैदा होता है। जो कोष्ठ जीवन बनता है, वह आंख से, नंगी आंख से तो देखा ही नहीं जा सकता; उसके लिए खुर्दबीन चाहिए।
बड़ा चमत्कार किया है! एक अदृशय छोटे से कण से सारा जीवन निर्मित हुआ है। देह, मन, तन सब उससे फैले हैं। यह तो एक अर्थ है। एक बूंद से साहेब मदिल बनावल हो। यह जीवन का मंदिर बनाया है। एक छोटी सी ईंट है, उस पर सारा मंदिर खड़ा है।
बिना नेव के मदिल, बहु कल लागल हो।
बड़ा चमत्कार मालूम होता है, बड़ा विस्मय मालूम होता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं है उस दूसरे चमत्कार के मुकाबले। क्योंकि गुरु ध्यान की एक ही छोटी बूंद से, फिर एक मंदिर बनाता है। वही मंदिर परमात्मा का आवास बनता है। एक छोटी सी बूंद.. .अदृश्य बूंद ध्यान की, गुरु से शिष्य में गिर जाती है। जो झुका है, उसमें गिर जाती है। बस उसी बूंद के आसपास मंदिर बनना शुरू हो जाता है।
इसलिए श्रद्धा को इतना प्रशंसित किया गया है, इतना गुण गाया गया है श्रद्धा का। क्योंकि श्रद्धा के ही किसी क्षण में बूंद सरक सकती है गुरु से शिष्य में। अगर शिष्य जरा भी संघर्षशील है, विवादी है, जरा भी संदेह से भरा है, संभ्रम में है, तो अपनी सुरक्षा करेगा, बूंद प्रवेश नहीं कर पाएगी।
जैसे स्त्री पुरुष के बीच संभोग घटता है, उस संभोग में पुरुष से जीवन ऊर्जा स्त्री में प्रवेश करती है ,ठीक वैसा ही संभोग गुरु और शिष्य के बीच बड़े आत्मिक तल पर घटता है। श्रद्धा हो परिपूर्ण, शिष्य बिल्कुल झुका हो, जरा भी संदेह न हो, भरोसा पूरा हो, तो ही वह परम संभोग घट सकता है। उसके घटते ही मंदिर बनना शुरू हो जाता है। कब बूंद सरकती है, इसका तो पता भी नहीं चलता, क्योंकि अदृश्य है। जब मंदिर बन जाता है तभी पता चलता है। तभी लौट कर शिष्य देखता है कि जरूर कभी बूंद प्रवेश कर गयी होगी। कब पहली ईंट रखी गयी, पता नहीं-और बिना नींव के मंदिर बन जाता है! एक चमत्कार है।
ओशो
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