“शोरे-नाकूसे-बरहमन हो कि बागे-हरम
छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं।
“जो जानते हैं, वह कहते हैं: यह मंदिर के पुजारी के घंटों की आवाज हो कि मस्जिद के मुल्ला की, सुबह की बांग हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
“छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं। “ हर आवाज में, हर ढंग में, हर व्यवस्था में, खोजनेवाला तो वही चैतन्य है; वही प्राण है– प्यासे, प्रेम के लिए आतुर!
“अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताते हैं। “
“पाराशर के पुत्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है। “ पूजा का अर्थ होता है: परमात्मा को प्रतिस्थापित करना; एक पत्थर की मूर्ति है या मिट्टी की मूर्ति है, परमात्मा को उसमें आमंत्रित करना; परमात्मा को कहना कि “इसमें आओ और विराजो–क्योंकि तुम हो निराकार: कहां तुम्हारी आरती उतारुं? हाथ मेरे छोटे हैं, तुम छोटे बनो! तुम हो विराट: कहां धूप-दीप जलाऊ? मैं छोटा हूं, सीमित हूं, तुम मेरी सीमा के भीतर आओ! तुम्हारा ओर-छोर नहीं: कहां नाचूं? किसके सामने गीत गाऊं? तुम इस मूर्ति में बैठो! “
पूजा का अर्थ है: परमात्मा की प्रतिस्थापना सीमा में, आमंत्रण–इसलिए पूजा का प्रारंभ उसके बुलाने से है।
अंगरेजी में शब्द है “गाड “ भगवान के लिए। वह शब्द बड़ा अनूठा है। उसका मूल अर्थ है—जिस मूल धातू से वह पैदा हूआ है, भाषा शास्त्री कहते हैं, उस मूल धातु का अर्थ है— “जिसको बुलाया जाता है। “ बस इतना ही अर्थ है जिसको बुलाया जाता है, जिसको पुकारा जाता है—वही भगवान।
दूसरा, जिसने कभी पूजा का रहस्य नहीं जाना, देखेगा तुम्हें बैठे पत् थर की गतइr के सामने, समझेगा :”नासमझ हो! क्या कर रहे हो, “ उसे पता नहीं कि पत् थर की मूर्ति अब पत्थर की नहीं—मृण्मय चिन्मय हो गया है! क्योंकि भक्त ने पुकारा है! भक्त ने अपनी विशिता जाहिर कर दी है। उसने कह दिया है कि “मैं मजबूर हूं। तुम जैसा विराट मैं न हो सकूंगा, तुम कृपा करो, तुम तो हो सकते हो मेरे जैसे छोटे! मेरी अड़चनें हैं। मेरी शक्ति नहीं इतनी बड़ी के तुम जैसा विराट हो सकूं। दया करो! तुम ही मुझ जैसे छोटे हो जाओ ताकि थोड़ा संवाद हो सके, थोड़ी गुफ्तगू हो सके, दो बातें हो सकें। मैं फूल चढ़ा सकूं, आरती उतार सकूं, नाच लूं तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा। सभी रूप तुम्हारे हैं, यह एक और रूप तुम्हारा सही! मुझे बहुत कुछ मिल जाएगा, तुम्हारा कुछ खोएगा नहीं।
“भक्त की आंख से देखना मूर्ति को, नहीं तो तुम मूर्ति को न देख पाओगे, तुम्हें पत्थर दिखायी पड़ेगा, मिट्टी दिखायी पड़ेगी। भक्त ने वहां भगवान को आरोपित कर लिया है। और जब परिपूर्ण हृदय से पुकारा जाता है, तो मिट्टी भी उसी की है। मिट्टी उससे खाली तो नहीं। पत्थर उसके बाहर तो नहीं। वह वहां छिपा ही पड़ा है। जब कोई हृदय से पुकारता है तो उसका आविर्भाव हो जाता है।
इसलिए भक्त जो देखता है मूर्ति में, तुम जल्दी मत करना, तुम नहीं देख सकते। देखने के लिए भक्त की आंखें चाहिए।
ओशो
छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं।
“जो जानते हैं, वह कहते हैं: यह मंदिर के पुजारी के घंटों की आवाज हो कि मस्जिद के मुल्ला की, सुबह की बांग हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
“छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं। “ हर आवाज में, हर ढंग में, हर व्यवस्था में, खोजनेवाला तो वही चैतन्य है; वही प्राण है– प्यासे, प्रेम के लिए आतुर!
“अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताते हैं। “
“पाराशर के पुत्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है। “ पूजा का अर्थ होता है: परमात्मा को प्रतिस्थापित करना; एक पत्थर की मूर्ति है या मिट्टी की मूर्ति है, परमात्मा को उसमें आमंत्रित करना; परमात्मा को कहना कि “इसमें आओ और विराजो–क्योंकि तुम हो निराकार: कहां तुम्हारी आरती उतारुं? हाथ मेरे छोटे हैं, तुम छोटे बनो! तुम हो विराट: कहां धूप-दीप जलाऊ? मैं छोटा हूं, सीमित हूं, तुम मेरी सीमा के भीतर आओ! तुम्हारा ओर-छोर नहीं: कहां नाचूं? किसके सामने गीत गाऊं? तुम इस मूर्ति में बैठो! “
पूजा का अर्थ है: परमात्मा की प्रतिस्थापना सीमा में, आमंत्रण–इसलिए पूजा का प्रारंभ उसके बुलाने से है।
अंगरेजी में शब्द है “गाड “ भगवान के लिए। वह शब्द बड़ा अनूठा है। उसका मूल अर्थ है—जिस मूल धातू से वह पैदा हूआ है, भाषा शास्त्री कहते हैं, उस मूल धातु का अर्थ है— “जिसको बुलाया जाता है। “ बस इतना ही अर्थ है जिसको बुलाया जाता है, जिसको पुकारा जाता है—वही भगवान।
दूसरा, जिसने कभी पूजा का रहस्य नहीं जाना, देखेगा तुम्हें बैठे पत् थर की गतइr के सामने, समझेगा :”नासमझ हो! क्या कर रहे हो, “ उसे पता नहीं कि पत् थर की मूर्ति अब पत्थर की नहीं—मृण्मय चिन्मय हो गया है! क्योंकि भक्त ने पुकारा है! भक्त ने अपनी विशिता जाहिर कर दी है। उसने कह दिया है कि “मैं मजबूर हूं। तुम जैसा विराट मैं न हो सकूंगा, तुम कृपा करो, तुम तो हो सकते हो मेरे जैसे छोटे! मेरी अड़चनें हैं। मेरी शक्ति नहीं इतनी बड़ी के तुम जैसा विराट हो सकूं। दया करो! तुम ही मुझ जैसे छोटे हो जाओ ताकि थोड़ा संवाद हो सके, थोड़ी गुफ्तगू हो सके, दो बातें हो सकें। मैं फूल चढ़ा सकूं, आरती उतार सकूं, नाच लूं तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा। सभी रूप तुम्हारे हैं, यह एक और रूप तुम्हारा सही! मुझे बहुत कुछ मिल जाएगा, तुम्हारा कुछ खोएगा नहीं।
“भक्त की आंख से देखना मूर्ति को, नहीं तो तुम मूर्ति को न देख पाओगे, तुम्हें पत्थर दिखायी पड़ेगा, मिट्टी दिखायी पड़ेगी। भक्त ने वहां भगवान को आरोपित कर लिया है। और जब परिपूर्ण हृदय से पुकारा जाता है, तो मिट्टी भी उसी की है। मिट्टी उससे खाली तो नहीं। पत्थर उसके बाहर तो नहीं। वह वहां छिपा ही पड़ा है। जब कोई हृदय से पुकारता है तो उसका आविर्भाव हो जाता है।
इसलिए भक्त जो देखता है मूर्ति में, तुम जल्दी मत करना, तुम नहीं देख सकते। देखने के लिए भक्त की आंखें चाहिए।
ओशो
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