मेरे पास, यह निरंतर मुझे अनुभव हुआ, कई तरह के लोग आते हैं। कुछ
अहंकारी आ जाते हैं। उनका मजा इतना ही है कि वे खास थे। जैसी ही मेरे पास
लोग बढ़ जाते हैं, और वस्तुत : वैसे लोग आ जाते हैं जो ध्यान कर रहे हैं,
समाधि में जा रहे हैं, प्रार्थना में लगे हैं, जो सच में जीवन — रूपांतरण
कर रहे हैं — इन अहंकारियों की प्रतिष्ठा कम होने लगती है। इनके बीच और
मेरे बीच उनकी संख्या बढ़ने लगती है, जो ध्यान कर रहे हैं। क्योंकि मैं उनके
लिए हूं, जो ध्यान कर रहे हैं। तुम ऐसे ही औपचारिक मिलने आ गए। कुछ लोग
हैं, वे कहते हैं: बस ऐसे आए थे, तो सोचा आपसे मिल आएं। मेरे पास वे लोग
हैं जो अपना जीवन दांव पर लगा रहे हैं। तुम बस आए थे, सोचा कि मिल आएं,
कुशल समाचार पूछ आएं।
मैं कुशल हूं, समाचार क्या। तुम कुशल नहीं हो, समाचार क्या। दोनों बातें जाहिर हैं। न कुछ पूछने को है, न कुछ कहने को है। मैं कुशल हूं— सदा कुशल हूं। और तुम अकुशल हो— और सदा अकुशल हो। अब इसमें क्या पूछना है, क्या तांछना है। समय क्यों खराब करना है?
लेकिन ऐसे लोगों को कष्ट हो जाता है। वे जल्दी से किसी और की तलाश में लग जाते हैं, कि कोई मिल जाए, जहां वे कुशल — समाचार कर सकें, औपचारिकताएं निभा सकें, जहां बैठ कर व्यर्थ की, फिजूल की बातें कर सकें। और जहां वे प्रमुख हो सकें, खास हो सकें।
मेरे पास खास होने का एक ढंग है कि तुम शून्य हो जाओ। मेरे पास सिद्ध होने का एक ही ढंग है कि तुम मिट जाओ। तुम मिटो तो हो सको।
लेकिन इस तरह के लोगों को अड़चन होती है। इसलिए मेरे अनुभव में यह आया कि जो लोग अहंकार के कारण आ जाते हैं, वे जल्दी ही मुझसे विदा हो जाते हैं। उनके अहंकार को कोई तृप्ति नहीं मिलती। उनको बड़ी चोट लगती है। वे चाहते थे कि मेरे कंधे पर हाथ रखते, मित्रता का व्यवहार करते, मैं उनसे मित्रता का व्यवहार करता।
मुझे कुछ अड़चन नहीं है। मेरे कंधे पर हाथ रखो, मुझे कुछ अड़चन नहीं है। मगर तुम मेरे कंधे पर जिस दिन हाथ रख लेते हो, उसी दिन मैं तुम्हारे लिए व्यर्थ हो गया। फिर तुम मुझे देख ही न सकोगे। तुम्हारी आंखें अंधी हो जाएंगी। तुम्हारा सारा परिप्रेक्ष्य खो जाएगा। तुम आओ तो मैं पूछ सकता हूं कि तुम्हारी पत्नी कैसी है, बच्चे कैसे हैं, फलां बीमार, ढिकां ठीक…। और तुम बड़े प्रसन्न होओगे। मगर क्या सार है। सार तो इसमें है कि मैं तुमसे कहूं कि तुम बिल्कुल ठीक नहीं हो! और कुछ करने का समय आ गया है, घड़ी आ गई है। और दिन पके जाते हैं, पीछे पछताओगे!
ओशो
मैं कुशल हूं, समाचार क्या। तुम कुशल नहीं हो, समाचार क्या। दोनों बातें जाहिर हैं। न कुछ पूछने को है, न कुछ कहने को है। मैं कुशल हूं— सदा कुशल हूं। और तुम अकुशल हो— और सदा अकुशल हो। अब इसमें क्या पूछना है, क्या तांछना है। समय क्यों खराब करना है?
लेकिन ऐसे लोगों को कष्ट हो जाता है। वे जल्दी से किसी और की तलाश में लग जाते हैं, कि कोई मिल जाए, जहां वे कुशल — समाचार कर सकें, औपचारिकताएं निभा सकें, जहां बैठ कर व्यर्थ की, फिजूल की बातें कर सकें। और जहां वे प्रमुख हो सकें, खास हो सकें।
मेरे पास खास होने का एक ढंग है कि तुम शून्य हो जाओ। मेरे पास सिद्ध होने का एक ही ढंग है कि तुम मिट जाओ। तुम मिटो तो हो सको।
लेकिन इस तरह के लोगों को अड़चन होती है। इसलिए मेरे अनुभव में यह आया कि जो लोग अहंकार के कारण आ जाते हैं, वे जल्दी ही मुझसे विदा हो जाते हैं। उनके अहंकार को कोई तृप्ति नहीं मिलती। उनको बड़ी चोट लगती है। वे चाहते थे कि मेरे कंधे पर हाथ रखते, मित्रता का व्यवहार करते, मैं उनसे मित्रता का व्यवहार करता।
मुझे कुछ अड़चन नहीं है। मेरे कंधे पर हाथ रखो, मुझे कुछ अड़चन नहीं है। मगर तुम मेरे कंधे पर जिस दिन हाथ रख लेते हो, उसी दिन मैं तुम्हारे लिए व्यर्थ हो गया। फिर तुम मुझे देख ही न सकोगे। तुम्हारी आंखें अंधी हो जाएंगी। तुम्हारा सारा परिप्रेक्ष्य खो जाएगा। तुम आओ तो मैं पूछ सकता हूं कि तुम्हारी पत्नी कैसी है, बच्चे कैसे हैं, फलां बीमार, ढिकां ठीक…। और तुम बड़े प्रसन्न होओगे। मगर क्या सार है। सार तो इसमें है कि मैं तुमसे कहूं कि तुम बिल्कुल ठीक नहीं हो! और कुछ करने का समय आ गया है, घड़ी आ गई है। और दिन पके जाते हैं, पीछे पछताओगे!
ओशो
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