जब तुम बच्चे थे, तब की देह में और आज की देह में क्या तारतम्य रह गया
है? कल के मन में और आज के मन में क्या संबंध रह गया है? आनेवाला कल अपना
मन लाएगा, अपनी देह लाएगा। इस बदलती हुई धारा को तुमने अपना अस्तित्व समझ
रखा है? इसी भांति के कारण तुम उसे नहीं देख पाते जो जन्म के भी पहले था और
मृत्यु के भी बाद में होगा। बबूले में उलझ जाते हो, बबूले के नीचे छिपे
सागर को नहीं खोज पाते।
जैसे ही तुम देखोगे—— गौर से देखोगे—— इस मैं की सच्चाई में झाकोगे, इस मैं की जरा खुदाई करोगे, तुम पाओगे कि यहां कुछ भी पकड़ने जैसा नहीं है। मैं हूं कहां? और ऐसा दिखायी पड़े तो ही सदगुरू की शरण में झुके। झुकने का अर्थ ही यह होता है कि मैं— भाव न रहा।
सतगुरु का क्या अर्थ होता है? —— ऐसा कोई व्यक्ति, जिसमें मैं— भाव नहीं रहा है।
अब ध्यान रखना, सतगुरु को भी ” मैं ” शब्द का उपयोग तो करना ही होगा। वह भाषा की अनिवार्यता है। कृष्ण तक अर्जुन से कहते हैं : मामेकं शरणं तज। मुझ की शरण आजा! मेरी शरण आजा! सर्व धर्मा; परित्यज्य! सब छोड़— छाड़ दे, सब धर्म इत्यादि, मेरी शरण आजा।
जब कोई पढ़ता है, उसके मन में खटका लगता है कि कृष्ण में बड़ा भयंकर अहंकार मालूम होता है—— ” मेरी शरण आ जा!” मैं का उपयोग तो कृष्ण को भी करना पड़ रहा है। भाषा की अनिवार्यता है। अन्यथा कृष्ण में कोई मैं नहीं। और मजा ऐसा है कि कृष्ण ने जब कहा ” मामेकं शरणं तज ” तो वहां कोई अहंकार नहीं था। और जब तुम कहते हो ” मैं तो आपके पैर की धूल ”, तब वहां बड़ा अहंकार होता है।’’ मैं तो कुछ नहीं ” जब तुम कहते हो, तब भी वहां अहंकार होता है।’’ मैं तो नाकुछ ”, तब भी वहां अहंकार होता है।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि मैं का उपयोग करोगे कि नहीं—— सवाल यह है कि मैं को भीतर निर्मित होने दोगे कि नहीं। मैं को भीतर देख लेना—— अस्तित्वहीन है, सारहीन है, व्यर्थ की चिंताएं लाता है, व्यर्थ के उपद्रव खड़े करता है; जीवन को कलह से और नरक से भर देता है—— जिस व्यक्ति को ऐसा दिखायी पड़ गया है, उसको हम कहते हैं : सदगुरू। और उसके पास अगर तुम भी झुक जाओ तो जो उसे दिखायी पड़ गया है वह तुममें भी उतर जाए। उसके पास तुम बैठ जाओ तो जो उसे हुआ है तुम्हें भी होने लगे। तुम्हारा भी रंग बदले, तुम्हारा भी ढंग बदले। उसकी आभा तुम्हारे भीतर सोयी हुई आभा को जगाने लगे। उसकी पुकार तुम्हें सुनायी पड़े।
ओशो
जैसे ही तुम देखोगे—— गौर से देखोगे—— इस मैं की सच्चाई में झाकोगे, इस मैं की जरा खुदाई करोगे, तुम पाओगे कि यहां कुछ भी पकड़ने जैसा नहीं है। मैं हूं कहां? और ऐसा दिखायी पड़े तो ही सदगुरू की शरण में झुके। झुकने का अर्थ ही यह होता है कि मैं— भाव न रहा।
सतगुरु का क्या अर्थ होता है? —— ऐसा कोई व्यक्ति, जिसमें मैं— भाव नहीं रहा है।
अब ध्यान रखना, सतगुरु को भी ” मैं ” शब्द का उपयोग तो करना ही होगा। वह भाषा की अनिवार्यता है। कृष्ण तक अर्जुन से कहते हैं : मामेकं शरणं तज। मुझ की शरण आजा! मेरी शरण आजा! सर्व धर्मा; परित्यज्य! सब छोड़— छाड़ दे, सब धर्म इत्यादि, मेरी शरण आजा।
जब कोई पढ़ता है, उसके मन में खटका लगता है कि कृष्ण में बड़ा भयंकर अहंकार मालूम होता है—— ” मेरी शरण आ जा!” मैं का उपयोग तो कृष्ण को भी करना पड़ रहा है। भाषा की अनिवार्यता है। अन्यथा कृष्ण में कोई मैं नहीं। और मजा ऐसा है कि कृष्ण ने जब कहा ” मामेकं शरणं तज ” तो वहां कोई अहंकार नहीं था। और जब तुम कहते हो ” मैं तो आपके पैर की धूल ”, तब वहां बड़ा अहंकार होता है।’’ मैं तो कुछ नहीं ” जब तुम कहते हो, तब भी वहां अहंकार होता है।’’ मैं तो नाकुछ ”, तब भी वहां अहंकार होता है।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि मैं का उपयोग करोगे कि नहीं—— सवाल यह है कि मैं को भीतर निर्मित होने दोगे कि नहीं। मैं को भीतर देख लेना—— अस्तित्वहीन है, सारहीन है, व्यर्थ की चिंताएं लाता है, व्यर्थ के उपद्रव खड़े करता है; जीवन को कलह से और नरक से भर देता है—— जिस व्यक्ति को ऐसा दिखायी पड़ गया है, उसको हम कहते हैं : सदगुरू। और उसके पास अगर तुम भी झुक जाओ तो जो उसे दिखायी पड़ गया है वह तुममें भी उतर जाए। उसके पास तुम बैठ जाओ तो जो उसे हुआ है तुम्हें भी होने लगे। तुम्हारा भी रंग बदले, तुम्हारा भी ढंग बदले। उसकी आभा तुम्हारे भीतर सोयी हुई आभा को जगाने लगे। उसकी पुकार तुम्हें सुनायी पड़े।
ओशो
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