शायद आपको पता न हो यह एशिया शब्द कहां से आ गया है। बहुत पुराना शब्द
है। कोई आज से छह हजार साल पुराना शब्द है, और बेबीलोन में पहली दफा इस
शब्द का जन्म हुआ। बेबीलोनियन भाषा में एक शब्द है “असू’। “असू’ से एशिया
बना। “असू’ का मतलब होता है, सूर्य का उगता हुआ देश। जो जापान का अर्थ है
वही एशिया का भी अर्थ है। जहां से सूरज उगता है, जिस जगह से सूर्य उगा है,
वहीं से जगत को सारे संन्यासी मिले।
यूरोप शब्द का ठीक इससे उलटा मतलब है। यूरोप शब्द भी अशीरियन भाषा का
शब्द है। वह जिस शब्द से बना है–अरेश–उस शब्द का मतलब है, सूरज के डूबने का
देश; संध्या का, अंधेरे का, जहां सूर्यास्त होता है।
वे जो सूर्यास्त के देश हैं, उनसे विज्ञान मिला है, वैज्ञानिक मिला है।
जो सूर्योदय के देश हैं, सुबह के, उनसे संन्यास मिला है। इस जगत को अब तक
जो दो बड़ी से बड़ी देन मिली है, दोनों छोरों से, वह एक विज्ञान की है।
स्वभावतः विज्ञान वहीं मिल सकता है जहां भौतिक की खोज हो। स्वभावतः संन्यास
वहीं मिल सकता है जहां अभौतिक की खोज हो। विज्ञान वहीं मिल सकता है जहां
पदार्थ की गहराइयों में उतरने की चेष्टा हो। और संन्यास वहीं मिल सकता है
जहां परमात्मा की गहराइयों में उतरने की चेष्टा हो। जो अंधेरे से लड़ेंगे वे
विज्ञान को जन्म दे देंगे। और जो सुबह के प्रकाश को प्रेम करेंगे वे
परमात्मा की खोज पर निकल जाते हैं।
यह जो पूरब से संन्यास मिला है, यह संन्यास भविष्य में खो सकता है।
क्योंकि संन्यास की अब तक की जो व्यवस्था थी उस व्यवस्था के मूल आधार टूट
गए हैं। इसलिए मैं देखता हूं इस संन्यास को बचाया जाना जरूरी है। यह बचाया
जायेगा, पर आश्रमों में नहीं, वनों में नहीं, हिमालय पर नहीं।
वह तिब्बत का संन्यासी नष्ट हो गया। शायद गहरे से गहरा संन्यासी तिब्बत
के पास था। लेकिन वह विदा हो रहा है, वह विदा हो जाएगा, वह बच नहीं सकता
है। अब संन्यासी बचेगा फैक्ट्री में, दुकान में, बाजार में, स्कूल में,
युनिवर्सिटी में। जिंदगी जहां है, अब संन्यासी को वहीं खड़ा हो जाना पड़ेगा।
और संन्यासी जगह बदल ले, इसमें बहुत अड़चन नहीं है। संन्यास नहीं मिटना
चाहिए।
इसलिए मैं जिंदगी को भीतर से संन्यासी कर देने के पक्ष में हूं। जो जहां
है वहीं संन्यासी हो जाये, सिर्फ रुख बदले, मनःस्थिति बदले। हिंसा की जगह
अहिंसा उसकी मनःस्थिति बने, परिग्रह की जगह अपरिग्रह उसकी समझ बने, चोरी की
जगह अचौर्य उसका आनंद हो, काम की जगह अकाम पर उसकी दृष्टि बढ़ती चली जाये,
प्रमाद की जगह अप्रमाद उसकी साधना बने, तो व्यक्ति जहां है, जिस जगह है,
वहीं मनःस्थिति बदल जाएगी। और फिर सब बदल जाता है।
ओशो
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