आपने गायत्री— मंत्र और नमोकार मंत्र के तोता — रटन की कहानी
सुनायी। इस तोता— रटन को आप बंद करवाना चाहते हो। क्या यही गायत्री मंत्र
है। क्या यही नमोकार मंत्र है?
अच्युत! ऐसा ही है। जहां सारे मंत्र शांत हो जाते हैं, वहीं असली मंत्र पैदा होता है। जो मंत्र तुम दोहराते हो, उस मंत्र का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारी जबान से दोहराया गया, तुम्हारी जबान से ज्यादा मूल्यवान हो नहीं सकता है।
जिस ओंकार को तुम गुनगुनाते हो, तुम्हारा ओंकार तुमसे छोटा होगा। एक और ओंकार है, जो तुम्हारे गुनगुनाने से पैदा नहीं होता— जिसकी गुनगुनाहट से तुम पैदा हुए हो। एक और ओंकार है, जिसका नाद सारे जगत् को घेरे हुए है। जिससे जगत् निर्मित हुआ है। उस ओंकार को सुनने के लिए गुनगुनाने की जरूरत नहीं है। उस ओंकार को सुनने के लिए सब गुनगुनाना बंद हो जाए, वाणी मात्र शांत हो जाए, विचार लीन हो जाएं, मन में कोई तरंग न रहे, तब अचानक तुम चकित होकर सुनोगे — एक संगीत बज रहा है भीतर! सदा से बजता रहा है। मगर तुम अपने शोरगुल से भरे थे और उसे सुन न पाए। और कभी — कभी सांसारिक शोरगुल से छूटते हो तो आध्यात्मिक शोरगुल से भर जाते हो। कोई आदमी बाजार के शोरगुल से भरा था। तेईस घंटे उससे भरा रहता है, फिर मंदिर में बैठ जाता है। वहां जा कर नमोकार पढ़ने लगता है या ओंकार का जाप करने लगता है या राम— राम, राम— राम की धुन लगा देता है। तुम शोरगुल से कब छूटोगे। शोरगुल बदल लिया। पहले सांसारिक शोरगुल था, अब आध्यात्मिक शोरगुल। मगर शोरगुल, शोरगुल है। कोई आध्यात्मिक शोरगुल नहीं होता, कोई सांसारिक शोरगुल नहीं होता। शोरगुल शोरगुल है।
अजपा सीखो। नानक ने कहा, कबीर ने कहा : अजपा सीखो। धरमदास ने कहा : अजपा सीखो। अजपा का अर्थ होता है, जो तुम्हारे जाप से पैदा नहीं होता। लेकिन तुम्हारे जब सब जाप बंद हो जाते हैं, छूट गई हाथ से माला, गिर गए हाथ के फूल, बुझ गई आरती, भूल गई मूर्ति, मंदिर, पूजा, प्रार्थना, शब्द खो गए, सब शांत हो गया। उस क्षण अचानक विस्फोट होता है। और ऐसा नहीं कि उस क्षण विस्फोट होता है। संगीत तो भीतर बज ही रहा था।
परमात्मा तुम्हारी वीणा पर खेल ही रहा है। तुम्हारी वीणा के तार छू ही रहा है। नहीं तो तुम जियोगे कैसे। तुम्हारा जीवन क्या है। जिस क्षण उसकी अंगुलियां तुम्हारी वीणा के तारों से अलग हो गईं, उसी क्षण तुम मर जाते हो। उसकी अंगुलियां तुम्हारी वीणा पर खेल रही हैं। वही तो तुम्हारा जीवन है— जीवन — संगीत है।
मगर एक बार सुनायी पड़ जाए, बस फिर अड़चन नहीं आती। फिर जब चाहो — ” जब जरा गरदन झुकाई, दिल के आईने में है तस्वीरे— यार।’’ फिर तो जरा गरदन झुकाई और देख ली। जब मन हुआ, आंख को बंद किया एक क्षण को, और देख ली। बीच बाजार में चलते — चलते एक क्षण को सुनना चाहा, सुन लिया संगीत। फिर तुम कहीं भी रहो, उससे जुड़े हो। अजपा चलता है।
अच्युत! तुम ठीक ही कहते हो। गायत्री मंत्र जब बंद हो जाते हैं, तभी गायत्री मंत्र पैदा होता है। नमोकार जब खो जाता है, तभी नमोकार का जन्म है।
ओशो
अच्युत! ऐसा ही है। जहां सारे मंत्र शांत हो जाते हैं, वहीं असली मंत्र पैदा होता है। जो मंत्र तुम दोहराते हो, उस मंत्र का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारी जबान से दोहराया गया, तुम्हारी जबान से ज्यादा मूल्यवान हो नहीं सकता है।
जिस ओंकार को तुम गुनगुनाते हो, तुम्हारा ओंकार तुमसे छोटा होगा। एक और ओंकार है, जो तुम्हारे गुनगुनाने से पैदा नहीं होता— जिसकी गुनगुनाहट से तुम पैदा हुए हो। एक और ओंकार है, जिसका नाद सारे जगत् को घेरे हुए है। जिससे जगत् निर्मित हुआ है। उस ओंकार को सुनने के लिए गुनगुनाने की जरूरत नहीं है। उस ओंकार को सुनने के लिए सब गुनगुनाना बंद हो जाए, वाणी मात्र शांत हो जाए, विचार लीन हो जाएं, मन में कोई तरंग न रहे, तब अचानक तुम चकित होकर सुनोगे — एक संगीत बज रहा है भीतर! सदा से बजता रहा है। मगर तुम अपने शोरगुल से भरे थे और उसे सुन न पाए। और कभी — कभी सांसारिक शोरगुल से छूटते हो तो आध्यात्मिक शोरगुल से भर जाते हो। कोई आदमी बाजार के शोरगुल से भरा था। तेईस घंटे उससे भरा रहता है, फिर मंदिर में बैठ जाता है। वहां जा कर नमोकार पढ़ने लगता है या ओंकार का जाप करने लगता है या राम— राम, राम— राम की धुन लगा देता है। तुम शोरगुल से कब छूटोगे। शोरगुल बदल लिया। पहले सांसारिक शोरगुल था, अब आध्यात्मिक शोरगुल। मगर शोरगुल, शोरगुल है। कोई आध्यात्मिक शोरगुल नहीं होता, कोई सांसारिक शोरगुल नहीं होता। शोरगुल शोरगुल है।
अजपा सीखो। नानक ने कहा, कबीर ने कहा : अजपा सीखो। धरमदास ने कहा : अजपा सीखो। अजपा का अर्थ होता है, जो तुम्हारे जाप से पैदा नहीं होता। लेकिन तुम्हारे जब सब जाप बंद हो जाते हैं, छूट गई हाथ से माला, गिर गए हाथ के फूल, बुझ गई आरती, भूल गई मूर्ति, मंदिर, पूजा, प्रार्थना, शब्द खो गए, सब शांत हो गया। उस क्षण अचानक विस्फोट होता है। और ऐसा नहीं कि उस क्षण विस्फोट होता है। संगीत तो भीतर बज ही रहा था।
परमात्मा तुम्हारी वीणा पर खेल ही रहा है। तुम्हारी वीणा के तार छू ही रहा है। नहीं तो तुम जियोगे कैसे। तुम्हारा जीवन क्या है। जिस क्षण उसकी अंगुलियां तुम्हारी वीणा के तारों से अलग हो गईं, उसी क्षण तुम मर जाते हो। उसकी अंगुलियां तुम्हारी वीणा पर खेल रही हैं। वही तो तुम्हारा जीवन है— जीवन — संगीत है।
मगर एक बार सुनायी पड़ जाए, बस फिर अड़चन नहीं आती। फिर जब चाहो — ” जब जरा गरदन झुकाई, दिल के आईने में है तस्वीरे— यार।’’ फिर तो जरा गरदन झुकाई और देख ली। जब मन हुआ, आंख को बंद किया एक क्षण को, और देख ली। बीच बाजार में चलते — चलते एक क्षण को सुनना चाहा, सुन लिया संगीत। फिर तुम कहीं भी रहो, उससे जुड़े हो। अजपा चलता है।
अच्युत! तुम ठीक ही कहते हो। गायत्री मंत्र जब बंद हो जाते हैं, तभी गायत्री मंत्र पैदा होता है। नमोकार जब खो जाता है, तभी नमोकार का जन्म है।
ओशो
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