सुकरात का वचन है कि जब मैं युवा था तो सोचता था, बहुत कुछ जानता हूं।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, जानना भी बढ़ा। लेकिन एक अनूठी घटना भी साथ-साथ, कदम से
कदम मिलाते हुए चली। जितना ज्यादा जानने लगा, उतना ही अनुभव होने लगा कि
कितना कम जानता हूं। और अंततः जीवन की वह घड़ी भी आई, जब मेरे पास कहने को
केवल एक शब्द था कि मैं सिर्फ इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। यह
सुकरात के अंतिम वचनों मग से हैं। जीवन भर की यात्रा, ज्ञान की खोज, और
परिणाम एक बच्चे का भोलापन: जिसे कुछ भी पता नहीं है।
यूनान में डेल्फी का मंदिर है। उन दिनों बहुत प्रसिद्ध था, अब तो सिर्फ
उसके खंडहर बाकी हैं। डेल्फी के मंदिर की जो पुजारिन थी, वह रामकृष्ण जैसी
रही होगी। कभी-कभी गीत गाते-गाते, नाचते-नाचते बेहोश हो कर गिर पड़ती थी। और
उस बेहोशी में जो कहती थी, वह होशवालों को होश गुम कर देते। जब सुकरात ने
यह वचन कहा था, उसके थोड़े ही दिन बाद डेल्फी की पुजारिन ने घोषणा की कि
सुकरात दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है।
लोगों ने सुना, हैरानी में पड़े। सुकरात कहता है, मैं कुछ भी नहीं जानता,
बस इतना ही जानता हूं। और डेल्फी की पुजारिन की बात कभी झूठ नहीं गई थी।
और वह कहती है, सुकरात जगत का सबसे बड़ा महाज्ञानी है। वे लोग सुकरात के पास
आए। सुकरात से निवेदन किया कि देवी की आविष्ट अवस्था में यह उदघोष हुआ है।
सुकरात ने कहा, देवी बेहोश थी, मैं होश में हूं। मैं फिर कहता हूं कि मैं
कुछ भी नहीं जानता हूं। देवी गलत हो सकती है, सुकरात गलत नहीं हो सकता।
देवी मुझे बाहर से जानती है, मैं स्वयं को भीतर से जानता हूं। लौट जाओ और
देवी को कहना कि तुम्हारी एक भविष्यवाणी गलत हो गई। कम से कम एक तो निश्चित
ही गलत हो गई। लोग वापिस लौटकर देवी से कहे और देवी हंसी। उसने कहा, कहना
सुकरात से कि मैंने तुम्हें महाज्ञानी इसीलिए तो कहा था कि तुमने जान लिया
है कि जगत में सभी कुछ अज्ञात है और रहस्यमय है। मेरे वक्तव्य में और
तुम्हारे वक्तव्य में कोई विरोध नहीं है।
हम जन्मते हैं, पता नहीं क्यों? कौन सी अज्ञात शक्ति हमें जीवन में लाती
है। हम जीते भी हैं, पता नहीं क्यों! हम एक दिन मर भी जाते हैं और शायद यह
चक्र अनंत बार घूम चुका है और हमें कोई भी पता नहीं कि क्यों?
यह प्रश्न भद्रा का है। चूंकि रोज मैं उसकी चोटी खींच रहा था कि भद्रा पूछ, भद्रा पूछ, बामुश्किल किसी तरह प्रश्न बनाकर ले आई है।
जगत एक रहस्य है, एक ऐसा शास्त्र जो पढ़ा नहीं जा सकता। और जो दावा करते
हैं जानने का, उनसे बड़े अज्ञानी इस दुनिया में दूसरे नहीं हैं। और जिनकी
समझ में यह आ जाता है कि हम एक अज्ञात, अपरिसीम, अव्याख्य शक्ति की तरंगें
हैं–न जिनके प्रारंभ का कोई पता है, न जिनके अंत की कोई खबर है, वे ही थोड़े
से लोग अपने भीतर अचानक पाते हैं, जैसे चुंबक बन गए हों।
कोपले फिर फुट आई
ओशो
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