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Tuesday, May 17, 2016

साधक को भीतर देखते रहना चाहिए

एक दूसरे मित्र आए थे पूछने कि अगर आपको और कृष्णमूर्ति को मिलने की व्यवस्था की जाए, तो क्या आप मिलने को राजी हैं?

अब यह मेरे और कृष्‍णमूर्ति के बीच की बात है! इसमें इन मित्र को क्या प्रयोजन हो सकता है?

फिर उन्होंने पूछा हुआ था कि अगर आप दोनों का मिलना हो तो नमस्कार कौन पहले करेगा?

अब यह भी मेरे और कृष्णमूर्ति के बीच का मामला है!

चित्त दूसरों के चिंतन में लगा है। चित्त अपना चिंतन कर ही नहीं रहा है। साधक को निर्णय कर लेना चाहिए कि ये सब व्यर्थ की चितनाएं हैं। मेरे अतिरिक्त, और मेरे भीतरी विकास के अतिरिक्त, सब बातें साधक के लिए नहीं हैं। व्यर्थ हैं। उन जिज्ञासाओं में, कुतूहल में उलझना ही नहीं चाहिए। उससे कुछ भी लेना देना नहीं है। उससे कुछ आपके जीवन में होगा भी नहीं।

तो यह ध्यान रखें, ये परिभाषाएं आपके लिए हैं। और अपने भीतर आप तौलते रहें, इसलिए उपनिषद ने आपको मापदंड दिए हैं, ताकि भीतर के अगम रास्ते पर आपको कठिनाई न हो। अपने भीतर देखते रहना, जब तक वस्तुओं को देख कर वासना जगती हो, तब तक समझना कि वैराग्य उपलब्ध नहीं हुआ है। और वैराग्य के सतत श्रम में लगना, उस श्रम की हम धीरे धीरे बात कर रहे हैं।

अध्यात्म उपनिषद 

ओशो 

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