गौतम बुद्ध के जीवन में यह घटना है। मौलुंकपुत्त, एक बहुत बड़ा दार्शनिक
उन दिनों का, जिसके खुद हजारों शिष्य थे, अपने पांच सौ प्रतिष्ठित शिष्यों
को लेकर गौतम बुद्ध से विवाद करने गया। उसने न मालूम कितने पंडितों को और
कितने बड़े आचार्यों को पराजित किया था। उसने बुद्ध से निवेदन किया संवाद
का। बुद्ध ने कहा, संवाद जरूर होगा लेकिन ठीक समय पर। संवाद तो तुम जीवन भर
करते रहे। तुमने पाया क्या है? क्योंकि तुम गैर-स्थान पर, गैर-समय में
संवाद का आमंत्रण करते हो। तुम्हें कोई अंदाज नहीं है जीवन की गहरी
प्रक्रियाओं का। मैं राजी हूं। लेकिन शर्त है। दो साल मेरे चरणों में
चुपचाप बैठे रहो। और जो होता है, देखते रहो। हजारों लोग आएंगे, और जाएंगे,
दीक्षित होंगे, संन्यासी होंगे, रूपांतरित होंगे। एक शब्द भी तुम्हारे मुंह
से मैं सुनना नहीं चाहता हूं। और यह भी चाहता हूं कि तुम भी उनके संबंध
में कोई निर्णय न लेना। तुम सिर्फ चुपचाप मेरे पास बैठे रहना। और दो साल
बाद ठीक समय पर मैं तुमसे पूछूंगा कि अब विवाद का समय आ गया है, अब तुम पूछ
सकते हो।
यह जब बात हो रही थी तो बुद्ध का एक पुराना शिष्य महाकाश्यप वृक्ष के
नीचे बैठा हुआ हंसने लगा। महाकाश्यप के संबंध में कोई ज्यादा उल्लेख नहीं
है। बौद्ध-ग्रंथ में यह पहला उल्लेख है महाकाश्यप का, कि वह हंसने लगा।
मौलुंकपुत्त ने कहा मैं समझ नहीं पाता कि आपका यह शिष्य हंस क्यों रहा है।
मौलुंकपुत्त ने कहा, कि इसके पहले कि मैं चुप हो जाऊं कम से कम इतनी तो
आज्ञा दें कि मैं जान लूं, अन्यथा दो साल तक कीड़े की तरह यह मेरे मस्तिष्क
को खाता रहेगा कि क्यों यह आदमी हंस रहा था। और जब भी मैं देखूंगा–और यह
यहीं बैठा रहता है। और यह भी हो सकता है, हमेशा जब यह मुझे देखे,
मुस्कुराने लगे।
बुद्ध ने महाकाश्यप को आज्ञा दी कि तुम अपने हंसने का कारण कह दो, ताकि
वह निश्चित हो जाए। महाकाश्यप ने कहा, मौलुंकपुत्त, अगर पूछना हो तो अभी
पूछ लो। ऐसे ही एक दिन मैं भी आया था और दो साल इन चरणों में बैठकर खो गया।
और दो साल बाद जब मुझसे बुद्ध ने कहा कि महाकाश्यप, कुछ पूछना है? तो भीतर
कुछ, कोई प्रश्न, कोई शब्द, कोई जिज्ञासा, कुछ भी न था। यह आदमी बड़ा
धोखेबाज है। यह मेरा गुरु है, लेकिन सच बात सच है। तुम्हें पूछना हो तो पूछ
लो और न पूछना हो तो दो साल बैठे रहो।
और वही हुआ दो साल बाद। दो साल लंबा अरसा है। मौलुंकपुत्त तो भूल ही गया
कि कब दिन आए और कब रातें आयीं। कब चांद उगे और कब चांद ढले। वर्ष आए और
बीत गए, और एक दिन अचानक बुद्ध ने हिलाकर कहा कि दो साल पूरे हो गए। यही
दिन था कि तुम आए थे। अब खड़े हो जाओ और पूछो। मौलुंकपुत्त उनके चरणों में
गिर पड़ा और उसने कहा कि महाकाश्यप ने ठीक कहा था। मेरे भीतर पूछने को कुछ
भी नहीं बचा। मैं इतना शून्य हो गया हूं और उस शून्यता की सत्ता ने इतना भर
दिया है कि अब न कोई प्रश्न है, अब न कोई उत्तर है। सब एक सतत अमृत की
वर्षा है। मत छेड़ो, मुझे मत सताओ। मुझे बस चुपचाप यहां चरणों में बैठा रहने
दो।
सदगुरु के चरणों में बैठने के लिए हमने एक शब्द का उपयोग किया है:
उपनिषद। उपनिषद का अर्थ होता है गुरु के चरणों में बैठना। न तो पूछना, न
जिज्ञासा करना। लेकिन बैठे-बैठे पिघलते जाना, शून्य होते जाना।
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