ऐसा हुआ, एक बार वर्षाकाल शुरू होने के पहले एक भिक्षु राह से गुजर रहा
था और एक वेश्या ने उससे निवेदन किया कि इस वर्षाकाल मेरे घर रुक जाएं। उस
भिक्षु ने कहा, मैं अपने गुरु को पूछ लूं। उसने यह भी न कहा कि तू वेश्या
है। उसने यह भी न कहा कि तेरे घर और मेरा रुकना कैसे बन सकता है? उसने कुछ
भी न कहा। उसने कहा, मेरे गुरु को मैं पूछ आऊं। अगर आज्ञा हुई तो रुक
जाऊंगा।
वह गया और उसने भरी सभा में खड़े होकर बुद्ध से पूछा कि एक वेश्या राह पर
मल गई और कहने लगी कि इस वर्षाकाल मेरे घर रुक जाएं। आपसे पूछता हूं। जैसी
आज्ञा! बुद्ध ने कहा, रुक जाओ। बड़ा तहलका मच गया। बड़े भिक्षु नाराज हो गए।
यह तो कई की इच्छा थी। इनमें से तो कई आतुर थे कि ऐसा कुछ घटे। वे तो खड़े
हो गए। उन्होंने कहा, यह बात गलत है। सदा तो आप कहते हैं, देखना नहीं, छूना
नहीं और वेश्या के घर में रुकने की आज्ञा दे रहे हैं?
बुद्ध ने कहा, यह भिक्षु ऐसा है कि अगर वेश्या के घर में रुकेगा तो
वेश्या को डरना चाहिए; इस भिक्षु को डरने का कोई कारण नहीं है। खैर, चार
महीने बाद तय होगी बात, अभी तो रुक।
वह भिक्षु रुक गया। रोज रोज खबरें लाने लगे दूसरे भिक्षु कि सब गड़बड़ हो
रहा है। रात सुनते हैं, दो बजे रात तक वेश्या नाचती थी, वह बैठ कर देखता
रहा। कि सुनते हैं कि वह खान पान भी सब अस्तव्यस्त हो गया है। कि सुनते
हैं, एक ही कमरे में सो रहा है। ऐसा रोज रोज बुद्ध सुनते, मुस्कुरा कर रह
जाते। उन्होंने कहा, चार महीने रुको तो! चार महीने बाद आएगा।
चार महीने बाद भिक्षु आया, उसके पीछे वेश्या भी आई। वेश्या, इसके पहले
कि भिक्षु कुछ कहे, बुद्ध के चरणों में गिरी। उसने कहा कि मुझे दीक्षा दे
दें। इस भिक्षु को भेज कर मेरे घर, आपने मेरी मुक्ति का उपाय भेज दिया।
मैंने सब उपाय करके देख लिए इसे भटकाने के, मगर अपूर्व है यह भिक्षु। मैंने
नाच देखने को कहा तो इसने इनकार न किया। मैं सोचती थी कि भिक्षु कहेगा,
मैं संन्यासी, नाच देखूं? कभी नहीं! जो कुछ मैंने इसे कहा, यह चुपचाप कहने
लगा कि ठीक। मगर इसके भीतर कुछ ऐसी जलती रोशनी है कि इसके पास होकर मुझे
स्मरण भी नहीं रहता था कि मैं वेश्या हूं। इसकी मौजूदगी में मैं भी किसी
ऊंचे आकाश में उड़ने लगती थी। मैं इसे नीचे न उतार पाई, यह मुझे ऊपर ले गया।
मैं इसे गिरा न पाई, इसने मुझे उठा लिया। इस भिक्षु को मेरे घर भेज कर
आपने मुझ पर बड़ी कृपा की। मुझे दीक्षा दे दें, बात खतम हो गई। यह संसार
समाप्त हो गया। जैसी जागृति इसके भीतर है, जब तक ऐसी जागृति मेरे भीतर न हो
जाए तब तक जीवन व्यर्थ है। यह दीया मेरा भी जलना चाहिए।
बुद्ध ने अपने और भिक्षुओं से कहा, कहो क्या कहते हो? तुम रोज रोज खबरें
लाते थे। मैं तुमसे कहता था, थोड़ा धीरज रखो। इस भिक्षु पर मुझे भरोसा है।
इसका जागरण हो गया है। यह जाग्रत रह सकता है। असली बात जागरण है। गहरी बात
जागरण है। आखिरी बात जागरण है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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