आध्यात्मिक और सांसारिक खोज में वस्तुओं का भेद नहीं है,
आध्यात्मिक और सांसारिक खोज में अहंकार- का भेद है। एक आदमी संसार में धन के
ढेर लगा लेता है तो अहंकार मजबूत होता है। एक दूसरा आदमी सारे धन का त्याग
कर देता है और त्याग से अहंकार को मजबूत कर लेता है। दोनों की यात्रा
सांसारिक है। आध्यात्मिक यात्रा तो शुरू होती है अहंकार के विसर्जन से। एक
ही त्याग है करने जैसा, और वह मैं का त्याग है। बाकी सब त्याग फिजूल हैं,
क्योंकि उन त्याग से भी मैं भर लेता है।
कल ही एक सज्जन मुझे मिलने आए थे। वे कहते हैं कि चौदह साल से मैंने
अन्न नहीं लिया! और उनकी अकड़ देखने लायक थी। अन्न लेने से भी इतनी अकड़ पैदा
नहीं होती, जितनी उनको अन्न न लेने से पैदा हो गई है! तो यह अन्न का न
लेना तो जहर हो गया। उनकी अकड़ ही और थी! चौदह साल से अन्न नहीं लिया, होने
ही वाली है अकड़। अब किस पर कृपा की है आपने अन्न नहीं लिया तो? न लें!
लेकिन इसको वे बताते फिर रहे हैं कि चौदह साल से अन्न नहीं लिया! अब यही
अहंकार बन रहा है। अन्न से भी अहंकार इतना नहीं भरता, यह न अन्न से भरा जा
रहा है!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम दूध ही ले रहे हैं वर्षों से!
दूध उनके लिए जहर मालूम हो रहा है। वे जमीन पर नहीं चल रहे हैं, क्योंकि वे
दूध ले रहे हैं। क्या फर्क कर रहे हैं आप? कौन सी बड़ी क्रांति हुई जा रही
है कि दूध ले रहे हैं?
मगर उसका कारण है। क्योंकि उन्हें लगता है, वे कुछ विशेष कर रहे हैं जो
दूसरे नहीं कर रहे हैं। बस जहां विशेष का खयाल आया, अहंकार निर्मित होना
शुरू हो जाता है, फिर वह कोई भी विशेष हो। किसी भी कारण से आप विशिष्टता
पैदा कर लें अपने लिए, तो अहंकार निर्मित होता है।
तो साधक का क्या अर्थ हुआ? साधक का अर्थ हुआ कि अपने भीतर से विशेषता
पैदा करना बंद करता जाए; धीरे—धीरे ऐसा हो जाए कि नोबडी, कोई भी नहीं वह।
धीरे धीरे इतना सामान्य हो जाए भीतर, कि यह भाव ही पैदा न हो कि मैं भी कुछ
हूं; ना कुछ हो जाए। जिस दिन साधक ना कुछ हो जाता है, ज्ञान की परम अवधि आ
जाती है। ज्ञान के संग्रह से नहीं, अहंकार के विसर्जन से।
जानकारी के संग्रह से नहीं, मैं की मृत्यु से।
‘इसी प्रकार लय को प्राप्त हुई वृत्तियां फिर से उत्पन्न न हों, वह उपरति की अवधि है। ऐसा स्थितप्रज्ञ यति सदा आनंद को पाता है।’
अध्यात्म उपनिषद
ओशो
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