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Tuesday, September 29, 2015

जब सभी पहुंचे हुए पूर्ण-पुरुष परमात्मा की पुकार करते हैं, तभी मेरी समझ में नहीं आता कि पुकारने के लिए वे बचते हैं कहां?


नंद भारती! तेरा प्रश्न ठीक है, लेकिन एक भ्रांति पर खड़ा है, एक छोटी-सी भूल पर खड़ा है।

पूछा तूने: “जब सभी पहुंचे हुए पूर्ण-पुरुष परमात्मा की पुकार करते हैं, तभी मेरी समझ में नहीं आता कि पुकारने के लिए बचते हैं कहां?’

दो बातें ख्याल रख। एक: भक्त पुकारता है परमात्मा को, तब तक वह परमात्मा तक पहुंचा नहीं है, इसलिए परमात्मा को पुकारता है। फिर जब पहुंच जाता है और भक्त भगवान हो जाता है, तो परमात्मा को भक्त नहीं पुकारता। फिर भक्त के माध्यम से परमात्मा संसार को पुकारता है। फिर परमात्मा ही पुकारता है उससे। ये दो अलग-अलग पुकारें हैं। एक भक्त की पुकार है कि आन मिलो कि मुझे समा लो अपने में कि बहुत देर हो गई कि अब और देर नहीं सही जाती कि रोता हूं कि मनाता हूं तुम्हें कि रूठो मत कि मान जाओ कि द्वार खोलो कि कितनी देर हो गई, कितने जन्मों से मैं रो रहा हूं और पुकार रहा हूं, तुम कहां खो गए हो! यह भक्त की पुकार है, ये भक्त के आंसू हैं! अभी भक्त पुकार रहा है। भक्त लीन होना चाहता है। जैसे नदी पुकार रही है सागर को, क्योंकि सागर में लीन हो जाए तो सीमाओं से मुक्त हो जाए, चिंताओं से मुक्त हो जाए!

फिर जब नदी सागर में लीन हो गई, तो सागर गरजेगा! नदी सागर का हिस्सा हो गई। अब नदी अलग नहीं है। अब नदी पुकारने के लिए बची नहीं है। अब तो नदी सागर है। अब तो नदी का जल भी सागर की गर्जनत्तर्जन बनेगा। ऐसा ही भक्त जब भगवान को पहुंच जाता है, जब पूर्ण हो जाता है, तब भी पुकारता है। लेकिन अब भक्त नहीं पुकारता, अब भगवान पुकारता है। अब तो सागर का गर्जन है। अब भगवान औरों को पुकारता है।

इससे भूल हो सकती है। जैसे ये ही वाजिद के वचन, वाजिद कहते हैं: कहै वाजिद पुकार। यह वाजिद जो पुकारकर कह रहे हैं, यह अब परमात्मा वाजिद से पुकार रहा है। अब यह वाजिद नहीं पुकार रहे हैं। वाजिद तो गए, कब के गए! जब तुम बांस की पोंगरी की तरह पोले हो जाओगे, तब उसके ओंठों पर रखने के योग्य होओगे। तब बजेंगे स्वर! गीत फूटेगा तुमसे! तब उसकी श्वासें तुम्हारे भीतर से बहेंगी। फिर बांसुरी औरों को पुकारेगी, फिर बांसुरी की टेर औरों को पुकारेगी।

भक्त पहले भगवान को पुकारता है; फिर भगवान भक्त के माध्यम से और रास्तों पर जो भटक गए हैं, अंधेरे में जो अटक गए हैं, उन्हें पुकारता है। ये दोनों अलग-अलग पुकारें हैं। इनको एक ही मत समझ लेना। पहली पुकार में द्वैत है: भक्त है और भगवान है, बीच में फासला है। दूसरी पुकार में अद्वैत है; न भक्त है अब, न भगवान अलग है। अब तो एक है और अब एक ही गूंज रहा है: सागर की गर्जन है!

कहै वाजिद पुकार 

 

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