हम ऐसा समझें कि हम एक विराट सागर में मछलियों की भांति हैं। मछली
सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही समाप्त हो जाती है; सागर के जल सेही
निर्मित होती है, सागर के जल में ही विसर्जित हो जाती है। लेकिन जब मछली
होती है तो बिलकुल व्यक्ति होती है; फिर सागर में ही खो जाती है… और सागर
से ही निर्मित होती है–सागर ही है। या मछली को थोड़ा समझना कठिन मालूम पड़े,
तो ऐसा समझें कि सागर में बर्फ की एक चट्टान तैर रही है। बिलकुल अलग मालूम
होती है। सिर उठाए रहती है। पानी से सब तरह से अलग मालूम होती है–ठोस है,
सब है, लेकिन फिर भी सागर है… और जैसे ही पिघलेगी, लीन हो जाएगी।
इस पिघलने की प्रक्रिया को ही हम अहंकार का छोड़ना कहते रहे हैं।
जैसे-जैसे हम पिघलते हैं, अहंकार बिखरता है, विराट सागर में एक हो जाते
हैं।
चट्टान बर्फ की कितना ही अपने को भिन्न समझे, भिन्न नहीं है। हमारी
भिन्नता हमारा अज्ञान है; और हमारा ज्ञान हमारी अभिन्नता की घोषणा हो जाता
है।
इस अनंत, व्यापक को ब्रह्म कहा है। ‘ ब्रह्म’ शब्द बहुत कीमती है; इसका
अर्थ होता है, केवल परम विस्तार; ब्रह्म का अर्थ होता है. परम विस्तार। ‘
विस्तार’ और ‘ ब्रह्म’ एक ही शब्द से बने हैं। ब्रह्म का अर्थ है : जो
विस्तीर्ण होता चला गया है; जो फैलता ही चला गया है; जो फैला हुआ है; जिसके
फैलाव की कोई सीमा नहीं है।
ब्रह्म जैसा कोई शब्द दुनिया की दूसरी भाषा में नहीं है। ब्रह्म का
अनुवाद नहीं हो सकता। ईश्वर, गॉड, ब्रह्म से कोई मतलब नहीं रखते।.. कोई
मतलब नहीं रखते! इसलिए शंकर ने तो यहां तक कहने की हिम्मत की है कि ईश्वर
भी माया का हिस्सा है– ईश्वर भी। क्योंकि उसकी भी आकृति और रूप है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश.. सबकी आकृतियां और रूप हैं; वे भी माया के हिस्से
हैं। जहां आकृति है, जहां रूप है, वहां माया है। उनके भी पार जो अरूप है,
वह ब्रह्म है; वह सिर्फ विस्तार का नाम है– अनंत विस्तार का… जो सबमें फैला
हुआ है और कहीं रुकता ही नहीं, फैलता ही चला जाता है… इसलिए अनंत।
सर्वसार उपनिषद
ओशो
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