मुल्ला नसरुद्दीन को एक मानसिक बीमारी थी कि जब भी उसकी फोन की घंटी
बजे, तो वह घबड़ा जाए, डरे; कि पता नहीं, मकान मालिक ने किराए के लिए फोन न
किया हो; कि जिस दफ्तर में नौकरी करता है, कहीं उस मालिक ने नौकरी से अलग न
कर दिया हो! हजार चिंताएं पकड़ें; फोन उठाना उसे मुश्किल हो जाए। तो मैंने
उसे कहा कि तू किसी मनोचिकित्सक को दिखा ले।
दो तीन महीने उसने इलाज लिया। एक दिन मैं उसके घर गया, वह फोन कर रहा
था। और उसे कंपते भी मैंने नहीं देखा, डरते भी नहीं! फोन करने के बाद मैंने
पूछा कि मालूम होता है, चिकित्सा काम कर गई! अब डर नहीं लगता?
नसरुद्दीन ने कहा, डर की बात है; चिकित्सा जरूरत से ज्यादा फायदा हुआ।
तो मैंने पूछा कि जरूरत से ज्यादा फायदा का क्या मतलब? फायदा काफी है; जरूरत से ज्यादा से तुम्हारा क्या प्रयोजन है?
उसने कहा, अब तो ऐसी हिम्मत आ गई कि घंटी नहीं भी बजती तो भी मैं फोन
करता हूं। पहले घंटी बजने से डरता था; अब अभी-अभी जो फोन कर रहा था, घंटी
बजी ही नहीं थी और मैंने मकान मालिक को डांट दिया। वह इतना डर गया है कि
बोलता भी नहीं उस तरफ से। चुप! सांस की आवाज का भी पता नहीं चलता है।
एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत सुगम है। और मनुष्य-जीवन की यह बड़ी से
बड़ी विडंबना है। कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता
है। वह दूसरी अति हो गई। दूध का जला जैसे छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता
है, वैसा संसार से डरा हुआ व्यक्ति बहुत गहरे में परमात्मा से भी डर जाता
है। संसार का जला हुआ परमात्मा को भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है।
मनुष्य-मन की एक अत्यंत अनिवार्य ग्रंथि समझ लेनी जरूरी है। उस ग्रंथि
के कारण ही बहुत से लोग समझ कर भी चूक जाते हैं। उस ग्रंथि के कारण ही खाई
से तो बचते हैं, खड्ड में गिर जाते हैं; एक अति से तो मन बच जाता है, उस
बचने की प्रक्रिया में ही दूसरी अति पर चला जाता है।
संसार तो छूटना चाहिए भय के कारण नहीं; क्योंकि जिसे भी तुम भय के कारण
छोड़ोगे, वह छूटेगा नहीं; जिससे तुम भयभीत होओगे, वह तुम्हारा पीछा करेगा;
जिससे तुम डरोगे, वह तुम्हें और डराएगा; जिससे तुम भागोगे, वह तुम्हारे
पीछे आएगा। क्योंकि भय तो भीतर है, भागोगे कहां? किससे भागोगे? संसार अगर
बाहर होता तो भाग जाते। जहां जाओगे, वहीं संसार पाओगे। हिमालय की गुफा में
भी तुम तो रहोगे–वही, जैसे तुम यहां हो।
भज गोविन्दम मूढ़मते
ओशो
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