मैंने सुना है, एक गांव में अदालत में एक मुकदमा आया था। दो मित्र थे
बड़े पुराने मित्र थे, सिर-फुटव्वल हो गई। जज ने पूछा कि झगड़े का कारण
क्या था? तो दोनों थोड़े बेचैन हुए। फिर एक ने कहा कि झगड़े का कारण यह था
कि मेरे खेत में इसने भैंसें घुसा दीं।
खेत कहां है? जज ने पूछा।
उस आदमी ने कंधे बिचकाए।
भैंसें कहां हैं?
वह दूसरा आदमी बोला कि सुनिए, पहले पूरी बात सुन लीजिए। हम दोनों बैठें थे
नदी की रेत पर-पुराने दोस्त हैं-बातचीत चलती थी। मैंने इससे कहा कि मैं
भैंसें खरीदने की सोच रहा हूं। यह बोला कि मत खरीदो; न खरीदो तो अच्छा।
क्योंकि मैंने ईख का खेत लगाने की सोची है। और तुम भैंसें खरीद लोगे, नाहक
किसी दिन झंझट हो जाएगी। घुस गयीं खेत में, क्या करोगे? मैं बर्दाश्त न कर
सकूंगा। उस दूसरे आदमी ने कहा तो लगा लिया तुमने खेत! क्योंकि भैंसें तो
मुझे खरीदनी हैं। मत लगाओ खेत। अब भैंसों का क्या भरोसा भाई? भैंसें-भैंसें
हैं; किसी दिन घुस भी जाएंगी। तब मैं कोई दिन-रात भैंसों की पूंछ पकड़कर
तो घूमता न रहूंगा।
बात बढ़ गई तो उसने कहा, तुमने भी खरीद लीं
भैंसें! खेत तो लगेगा ईख का। यह लग गया खेत। उसने अपने डंडे से रेत पर एक
जगह लकीर खींच दी और कहा, यह रहा खेत। और दूसरे ने कहा कि फिर मैंने भी
अपने डंडे से दो भैंसें उसमें घुसा दीं, लकीरें खींच दा कि ये घुस गयीं
भैंसें। फिर सिर-फुटव्वल हो गई। न कोई खेत है, न कोई भैंस है।
तुमने
कभी गौर किया, ऐसी कितनी सिर-फुटव्वल तुम्हारे भीतर नहीं चलती है! हंसना
मत, कहानी तुम्हारी है। और किसी न किसी दिन अदालत की पकड़ में तुम आओगे। उस
अदालत को लोग परमात्मा कहते हैं। किसी न किसी दिन परमात्मा की अदालत में
खड़े होओगे, तो तुम भी ऐसी मुसीबत में पड़ोगे कि बता न पा पाओगे, कौन से
खेत थे, कौन सी भैंसें थीं। सिकंदर को भी कंधे उचकाने पड़ेंगे। क्योंकि सब
खेत काल्पनिक थे और सब भैंसें काल्पनिक थीं। सब दोस्त काल्पनिक थे, सब
दुश्मन काल्पनिक थे। कुछ हुआ न था। आकाक्षाओं में मुठभेड़ हो गई थी।
वासनाएं लड़ गयीं थीं। भविष्य की योजनाओं में संघर्ष हो गया था। वर्तमान
में तो कुछ भी न था, हाथ तो खाली थे।
लेकिन आदमी आकांक्षाओं से भरा
जीता है-तब तक, जब तक कि थोड़ा जागकर देखता नहीं। थोड़ी आख के किनारे से
जरा जागकर अपनी जिंदगी को देखो। थोड़ा सही! तुम्हें हंसी आए बिना न रहेगी।
जिंदगी तुम्हें एक मखौल मालूम होगी, एक मजाक मालूम होगी। किसी ने जैसे
व्यंग किया।
जागा हुआ व्यक्ति पहला तो अनुभव यह करता है कि यहां दुख
और सुख का कोई कारण ही नहीं है, सब कल्पना का जाल है। और जैसे ही यह समझ
में आता है, एक नया आकाश भीतर अपने द्वार खोल देता है। तो मै ही हूं; न कोई
सुख है, न कोई दुख है। इस मैं की प्रतीति, इस स्वयं के बोध में ही आनंद
है, शांति है।
और उस
जागरण में तुम्हें न तो यह पता चलेगा कि दूसरों ने तुम्हारा कल्याण किया; न
यह पता चलेगा कि अकल्याण किया। दूसरों ने कुछ किया ही नहीं। खेत थे ही
नहीं, जिसमें वे भैंसें छोड़ देते। दूसरों ने कुछ किया ही नहीं। अब और अगर
तुम इस जागरण में गहरे जाओगे तो पाओगे कि दूसरा भी नहीं है। वह भी तुम्हारी
कल्पना का ही हिस्सा था। वह भी तुमने माना था।
हम अलग- थलग नहीं हैं, भिन्न-भिन्न नहीं हैं, हम एक ही महा विस्तीर्ण चेतना के भाग हैं।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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