भगवान जेतवन में विहरते थे। पास के किसी गांव से आए एक युवक ने संन्यास की
दीक्षा ली। वह सबकी निंदा करता था। कारण हो तब तो चूकता ही नही था, कारण न
हो तब भी निंदा करता था। कारण न हो तो कारण खोज लेता था। कारण न मिले तो
कारण निर्मित कर लेता था। कोई दान नें दे तो निंदा करता और कोई दान दे तो
क्हता—अरे यह भी कोई दान है। दान देना सीखना हो तो मेरे परिवार से सीखो। वह
अपने परिवार की प्रशंसा में लगा रहता। शेष सारे संसार की निंदा अपने
परिवार की प्रशंसा यही उसका पूरा काम था। अपनी जाति, अपने वर्ण अपने कुल
सभी की अतिशय प्रशंसा में लगा रहता। उसके अहंकार का कोई अंत न था। शायद
इसीलिए वह सन्यस्त भी हुआ था!
एक बार कुछ भिक्षु उसके गांव गए तो पाया कि जैसे वह व्यर्थ ही दूसरों की
निंदा करता था वैसे ही व्यर्थ ही अपने कुल परिवार की प्रशंसा भी करता था।
उसके की तो कोई स्थिति ही न थी वह तो अत्यंत हीनवृत्तियों वाले परिवार से
आया था।
भिक्षुओं ने यह बात भगवान को कही। भगवान ने कहा हीनभाव ही श्रेष्ठता का
दावेदार बनता है जो श्रेष्ठ हैं उन्हें तो अपने श्रेष्ठ होने का पता भी
नहीं होता है। वही श्रेष्ठता का अनिवार्य लक्षण भी है। फिर यह भिक्षु न
केवल इसी समय ऐसा करता घूमता है, पहले भी ऐसा ही करता था और और जन्मो में
भी ऐसा ही करता था। जन्म जन्म इसने ऐसे ही गंवाए हैं। जितनी शक्ति इसने
दूसरों की निंदा और स्वयं की प्रशंसा में व्यय की है उतनी शक्ति से तो यह
कभी का निर्वाण का अधिकारी हो गया होता। उतनी शक्ति से तो न मालूम कितनी
बार भगवत्ता उपलब्ध कर ले सकता था। भिक्षुको इससे सीख लो। दूसरों की निंदा
दूसरों का नहीं अपना ही अहित करती है। यह दूसरों के बहाने अपनी ही छाती मे
छुरा भोंकना है। अपने पर दया करो और अपने अकल्याण से बचो क्योकि मनुष्य
अपना ही शत्रु और अपना ही मित्र है।
कोई दुतकारे तो हम कैसा भाव रखें? और कोई हमें तो दान न दे और दूसरों को दान दे तो हम कैसा भाव रखें? उस दिन उसने भगवान को भगवान कहकर भी संबोधित नहा किया मनुष्य की श्रद्धाएं भी कितनी छिछली हैं!
इस पृष्ठभूमि में भगवान ने आज की पहली दो गाथाएं कहीं।
‘लोग अपनी श्रद्धा भक्ति के अनुसार देते हैं। जो दूसरों के खान पान को देखकर सहन नहीं कर सकता, वह दिन या रात कभी भी समाधि को प्राप्त नहीं कर पाएगा।
‘जिसकी ऐसी मनोवृत्ति उच्छिन्न हो गयी है, समूल नष्ट हो गयी है, वही दिन या रात कभी भी समाधि को प्राप्त करता है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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