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Monday, November 14, 2016

जीवन के बंधनों से मुक्ति कैसे हो? आवागमन कैसे मिटे?





यह प्रश्न इसीलिए उठ आता है कि तुम सुनते हो संतों की वाणी। वे सभी कहते हैं: आवागमन से छूटो, मुक्त हो जाओ बंधनों से। उनकी बात सुन कर तुम भी सोचने लगते हो कि मुक्त हो जाएं बंधनों से, आवागमन से छूट जाएं। परम आनंद होगा। प्रभु का मिलन होगा। मोक्ष होगा। तुम्हारे भीतर वासना पैदा हो जाती है। संतों की बात सुन कर तुम्हारे भीतर मोक्ष के आनंद की वासना पैदा हो जाती है। यह एक नया बंधन हुआ। वासना बंधन है। यह एक नई तृष्णा हुई। तुम चूक गए बात। तुम संतों की बात नहीं समझे। 


संतों की बात अगर ठीक से समझो तो यही समझ में आएगा कि जब तृष्णा न रह जाएगी, वासना न रह जाएगी, तब जो शेष रहेगा वह मोक्ष है। मोक्ष की कोई वासना नहीं हो सकती।


अब तुम पूछते हो: "जीवन के बंधनों से मुक्ति कैसे हो?' 


क्यों? क्या जरूरत पड़ी है? तुम कहोगे: मोक्ष का सुख पाना है। लेकिन सुख पाने की आकांक्षा ही तो बंधन है। 


तुम कहते हो: "आवागमन कैसे मिटे?' 

क्यों? अमृत की उपलब्धि करनी है? लेकिन क्यों? तुम्हारे भीतर एक नई वासना का सूत्रपात हुआ। यह तो संसार का फैलाव है। चूक गए, ठीक-ठीक पकड़ नहीं पाए बात। और जिस ढंग से पकड़ी, उस ढंग से पकड़ने में ही सब गलत हो गया।


संत कुछ कहते हैं, तुम कुछ समझते हो। तुम्हारी व्याख्या विकृत कर देती है। बुद्ध ने कहा, वासनाओं से छूट जाओ, तो लोग उनसे जाकर पूछते हैं कि ठीक, चलो वासना ही से छूट जाएं। कैसे छूटें? अब यह नई वासना पैदा हो गई कि वासना से कैसे छूटें! अब यह सताएगी। अब यह प्राण में कांटे की तरह चुभेगी। अब यह घाव बनाएगी कि वासना से कैसे छूटें। यह एक नई वासना पैदा हो गई। और यह बड़ी खतरनाक वासना है। पहली वासनाएं तो ऐसी थीं कि शायद पूरी भी हो जाती हैं, लगे ही रहते धुन में तो हो ही जातीं। कोई धन के पीछे लगा ही रहे, लगा ही रहे, एक न एक दिन धन पा ही लेता है। फिर सिर पीटता है कि पा लिया, अब? वह दूसरी बात है। कोई पद के पीछे लगा ही रहे, लगा ही रहे, तो एक दिन पा ही लेता है।


इस संसार में सभी कुछ पाया जा सकता है। लेकिन यह निर्वासना कैसे पाई जाएगी? यह तो बिलकुल नहीं पाई जा सकती। पाने की भाषा ही वहां गलत है। वहां तो समझ ही काम आती है, पाना काम नहीं आता। तुम वासनाओं को समझ लो कि उनमें कष्ट है। मेरे कहने से नहीं। मेरे कहने से समझे तो समझे नहीं। अपनी वासनाओं को ही अनुभव करो। तुम धन के पीछे दौड़-दौड़ कर कितना कष्ट पा रहे हो। फिर धन तुम्हें मिल भी गया, क्या मिला? देखो, निरीक्षण करो! जाग कर अपने जीवन की प्रक्रिया को समझो। अपने मन के ढांचे को पहचानो। जैसे-जैसे तुम्हें कष्ट साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे ही तुम पाओगे कि तुम्हारी मुट्ठी संसार पर खुलने लगी। त्याग नहीं करना पड़ेगा--त्याग हो जाएगा। और यह बड़ी अलग बात है। इसलिए मैं कहता हूं: त्याग तो करना ही मत, क्योंकि त्याग करने का मतलब है कच्चा। त्याग हो जाए। 


तुम हाथ में एक पत्थर लिए चल रहे थे, सोचते थे हीरा है, तो खूब मुट्ठी कस कर बांधी थी। फिर तुम्हें समझ में आना शुरू हुआ, जौहरियों के पास बैठे--जौहरि की गति जौहरि जाने--जौहरियों के पास बैठे, साधु-संग किया, पहचान आनी शुरू हुई, अपनी मुट्ठी का पत्थर गौर से देखने लगे, समझ में आया कि यह तो हीरा नहीं है। क्या तुम सोचते हो फिर मुट्ठी खोलने के लिए कोई आयोजन करना होगा? फिर मुट्ठी कैसे न बांधूं, यह तुम पूछने जाओगे? तुम किसी से कहोगे कि हे गुरुदेव, अब मुझे कुछ रास्ता बताएं कि इस पत्थर को कैसे छोडूं? यह तो बात ही अब व्यर्थ होगी। जिस दिन तुम्हें समझ में आ गया यह पत्थर है, कि कांच का टुकड़ा है, हीरा नहीं है--उसी क्षण मुट्ठी खुल जाएगी, खोलनी नहीं पड़ेगी। खोलने के लिए श्रम नहीं करना पड़ेगा। मुट्ठी खुल जाएगी, पत्थर हाथ से छूट जाएगा। छोड़ना पड़े, तो गलत। छूट जाए, ठीक।


फर्क समझ लेना, बारीक फर्क है। बाहर से जो देखेगा उसको तो कुछ फर्क नहीं दिखाई पड़ेगा। तुम छोड़ रहे हो कि छूट गया, बाहर से तो कुछ पता नहीं चलेगा। बाहर से तो दोनों एक से मालूम होंगे: मुट्ठी खुली, यह पत्थर गिरा। मगर तुम भीतर तो जान सकते हो, भेद बड़ा है। छोड़ा कि छूटा? जो छूटा तो मुक्ति हो गई। जो छोड़ा, फिर लौट आओगे। क्योंकि छोड़ने का मतलब ही यह होता है: अभी दिखा न था कि पत्थर है। मन में तो अभी यही लगा था कि है तो हीरा। मगर अब ये साधु लोग कह रहे हैं कि पत्थर है। ये जौहरी कहते हैं कि पत्थर है, है तो हीरा। मैं तो पचास साल से जानता हूं कि हीरा है। लेकिन ये कहते हैं कि पत्थर है। शायद ठीक कहते हों। शायद मैं गलत होऊं।


लेकिन शायद! पक्का नहीं है। साफ नहीं हुआ है। तुम अभी जौहरी नहीं हो गए हो। अभी तुम्हारी आंख में पहचान नहीं आई है। तो छोड़ना पड़ेगा। तो तुम उपाय करोगे, आसन लगाओगे, सिर के बल खड़े होओगे, माला जपोगे, दौड़ोगे, उछलोगे, कूदोगे--लाख उपाय करोगे कि कैसे इसको छोड़ दूं! पकड़े हो और भीतर मन कह रहा है कि पता नहीं, कहीं धोखा-धड़ी न हो जाए; हीरा हाथ लगा था, कहीं छूट न जाए! कभी-कभी छोड़ भी दोगे, फिर उठा लोगे। छोड़ कर दो कदम जाओगे, फिर लौट आओगे कि छोड़ो भी, किनकी बातों में पड़े हो, पता इनको भी न हो! कौन जाने, या कौन जाने कि मैं इधर छोड़ कर जाऊं और साधु महाराज खुद उठा लें! कोई धोखाधड़ी हो! सिर्फ मुझे समझा रहे हों कि यह पत्थर है, सिर्फ इसलिए कि मैं छोड़ दूं! कौन जाने!


फिर उठा लेते हो। फिर-फिर उठा लेते हो।


कच्चा फल जैसे वृक्ष से अटका रहता है, ऐसे तुम अटके हो। जब फल पक जाता है, छूट जाता है, अपने से छूट जाता है। पका फल गिर जाता है, चुपचाप गिर जाता है।


तुमने पके पत्तों को गिरते देखा! कहीं कोई चोट नहीं लगती। वृक्ष पर कोई घाव नहीं छूटता। वृक्ष को पता ही नहीं चलता। वृक्ष हो सकता है अपनी शांति में डूबा हो; कब सूखा पत्ता गिर गया, वृक्ष को शायद महीनों बाद पता चले जब गौर से देखे कि कहां गया एक पत्ता, यहां हुआ करता था! वह तो अब तक मिट्टी में मिल चुका होगा। लेकिन कच्चा पत्ता जब तुम तोड़ते हो तो वृक्ष को चोट लगती है, घाव लगता है, रेखा छूट जाती है। जो पक जाता है, अपने से छूट जाता है।


तो मैं तुमसे कहूंगा: जीवन को छोड़ने की आकांक्षा मत करो। जीवन को समझो! मैं तुमसे यह नहीं कहता: हीरा छोड़ दो। मैं तुमसे यह कहता हूं: हीरा पहचानो! छोड़ने की जल्दी क्या है? जिस दिन पहचान तुम्हारी पूरी हो जाएगी, जिस दिन तुम जौहरी हो जाओगे, उस दिन तुम पूछने न जाओगे कैसे छोड़ दूं, छूट जाएगा। छोड़ने के लिए कोई आयोजन न करना पड़ेगा।


इसी को मैं परम संन्यास कहता हूं--जो समझ से फलित हो। फिर तुम्हें घर से भागने की जरूरत नहीं है। घर में रहते घर छूट जाता है। पत्नी के पास बैठे-बैठे पत्नी विलीन हो जाती है। बेटे के पास बैठे-बैठे बेटा तुम्हारा नहीं रह जाता। मेरे का भाव विलीन हो जाता है। जहां मेरे का भाव गया वहीं संसार गया।

कठोपनिषद 

ओशो 

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