एक तो उसके
पास साधन, सुविधाएं,
संपत्ति, परिग्रह बढ़ता चला जाए, लेकिन आत्मा न बढ़े। और दूसरा, उसकी अंतस चेतना
बढ़े। संसार में जो भी हम पा सकते हैं, उससे हम विकसित नहीं
होते। हमारी शक्ति भला विकसित होती हो, हमारे महल बड़े हो जाते
हों, हमारी धन की राशि बड़ी हो जाती हो, हमारा ज्ञान बड़ा संग्रह बन जाता हो, स्मृति भरपूर
हो जाती हो; उपाधियां, सम्मान,
सत्कार मिल जाते हों, लेकिन भीतर की चेतना,
भीतर की आत्मा, बीइंग, वैसा ही अविकसित रह जाता है जैसा जन्म के साथ था।
बाहर की यह दौड़ सभी को पकड़ लेती है। भीतर की
दौड़ बड़ी मुश्किल से कभी किसी को पकड़ती है। उसके भी कारण हैं।
बाहर की दौड़ इसलिए आसानी से पकड़ लेती है कि बाहर
का हमें इंद्रियों के द्वारा अनुभव होता है। आंखों से दिखाई पड़ती हैं वस्तुएं, कानों से ध्वनियां सुनाई
पड़ती हैं, नाक गंध की खबर देती है, स्वाद मिलता है। शरीर के सारे उपकरण बाहर की खबर देते हैं, भीतर की कोई खबर नहीं देते। शरीर विकसित ही इसलिए हुआ है कि उससे बाहर की
खबर मिल सके। शरीर आत्मा और बाहर के बीच सेतु है, इसलिए शरीर
बाहर की खबर देता है। इस खबर के मिलते ही चेतना बाहर की तरफ दौड़नी शुरू हो जाती है।
आंखे बाहर देखती हैं, भीतर तो देखती नहीं। और जहां
हमें दिखाई पड़ता है, वहीं मार्ग भी मालूम होता है। समस्त इंद्रिया
बहिर्गामी हैं। होंगी ही। क्योंकि अंतर्गामी इंद्रियों की कोई जरूरत नहीं है। जो भीतर
है मेरे, उसे तो मैं बिना इंद्रियों के भी जान ले सकता हूं।
जो बाहर है, उसे बिना इंद्रियों के जानने का कोई उपाय नहीं
है।
मनुष्य की सारी इंद्रियों का विकास बाहर के जगत
को जानने की आकांक्षा से हुआ है। मेरे हाथ
आपको छू सकते हैं। मेरे हाथ से मैं सब कुछ पकड़ सकता हूं सिर्फ अपने हाथ को छोड्कर।
मेरी आंखे सब कुछ देख सकती हैं,
सिर्फ मेरी आंखे खुद को नहीं देख सकतीं। आँख-आंख को ही नहीं देख सकती।
स्वभावत: इस कारण चेतना बाहर की तरफ बहती है।
और हम बाहर के संग्रह में, बाहर के संसार में, बाहर की वस्तुओं में,
उनके बढ़ाने में, उनके विकास में संलग्न हो
जाते हैं। ऐसे एक आदमी संपत्तिशाली हो जाता है और भीतर दरिद्र रह जाता है। ऐसे एक आदमी
महाशक्तिशाली हो जाता है-बाहर की दुनिया में, लेकिन भीतर दीन
रह जाता है। और जब तक भीतर दीनता है, तब तक बाहर की कोई शक्ति
और सामर्थ्य किसी काम में आने वाली नहीं।
कठोपनिषद
ओशो
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