मैंने सुना है कि एक आदमी बहुत उदास और दुखी
बैठा है। उसकी एक बड़ी होटल है। बहुत चलती हुई होटल है। और एक मित्र उससे पूछता है कि
तुम इतने दुखी और उदास क्यों दिखाई पड़ते हो कुछ दिनों से? कुछ धंधे में कठिनाई,
अड़चन है? उसने कहा, बहुत अड़चन है। बहुत घाटे में धंधा चल रहा है। मित्र ने कहा, समझ में नहीं आता, क्योंकि इतने मेहमान आते—जाते
दिखाई पड़ते हैं! और रोज शाम को जब मैं निकलता हूं तो तुम्हारे दरवाजे पर होटल के तख्ती
लगी रहती है नो वेकेंसी को, कि अब और जगह नहीं है,
तो धंधा तो बहुत जोर से चल रहा है! उस आदमी ने कहा, तुम्हें कुछ पता नहीं। आज से पंद्रह दिन पहले जब सांझ को हम नो वेकेंसी
की तख्ती लटकाते थे, तो उसके बाद कम से कम पचास आदमी और द्वार
खटखटाते थे। अब सिर्फ दस पंद्रह ही आते हैं। पचास आदमी लौटते थे पंद्रह दिन पहले;
जगह नहीं मिलती थी। अब सिर्फ दस पंद्रह ही लौटते हैं। धंधा बड़ा घाटे
में चल रहा है।
मैं एक घर में मेहमान था। गृहिणी ने मुझे कहा
कि आप मेरे पति को समझाइए कि इनको हो क्या गया है। बस, निरंतर एक ही चिंता में लगे
रहते हैं कि पांच लाख का नुकसान हो गया। पत्नी ने मुझे कहा कि मेरी समझ में नहीं आता
कि नुकसान हुआ कैसे! नुकसान नहीं हुआ है। मैंने पति को पूछा। उन्होंने कहा,
हुआ है नुकसान, दस लाख का लाभ होने की आशा
थी, पांच का ही लाभ हुआ है। नुकसान निश्चित हुआ है। पांच लाख
बिलकुल हाथ से गए।
अपेक्षा से भरा हुआ चित्त, लाभ हो तो भी हानि अनुभव
करता है। साक्षीभाव से भरा हुआ चित्त, हानि हो तो भी लाभ अनुभव
करता है। क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया, और जितना भी मिल
गया, वह भी परमकृपा है, वह भी अस्तित्व
का अनुदान है।
कठोपनिषद
ओशो
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