दीवानों की बस्ती में कोई समझदार आ गया! समझदारी
से उठाए गए प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं। नीचे लिखा है, सत्य का एक जिज्ञासु। न तो
जिज्ञासा है, न खोज है; मान्यताओं
से भरा हुआ मन होगा।
जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि ईश्वर है।
जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि धर्म है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि सदगुरु
है। जिज्ञासु प्रश्न थोड़े ही पूछता है,
जिज्ञासु अपनी प्यास जाहिर करता है।
प्रश्न दो ढंग से उठते हैं : एक तो प्यास की
भांति; तब उनका
गुणधर्म और। और एक जानकारी से, बुद्धि भरी है कूडा करकट से,
उसमें से प्रश्न उठ आते हैं। पहला प्रश्न, 'क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?'
धर्म का पता है, क्या है? पूरी तरह का अर्थ मालूम है, क्या होता है?
धर्म की दुनिया में पा लेने वाला बचता है?
एक एक शब्द को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता
है, कोने कातर
में तुम्हारे भी, इस तरह के विचार भरे पड़े हों, इस तरह की मान्यताएं भरी पड़ी हों। पहली तो बात धर्म को कोई पाता नहीं,
धर्म में स्वयं को खोता है। धर्म कोई संपदा नहीं है, जिसे तुम अपनी मुट्ठी में ले लो। धर्म तो मृत्यु है, जिसमें तुम समा जाते हो। तुम नहीं 'बचते तब धर्म
बचता है। जब तक तुम हो, तब तक धर्म नहीं।
इसलिए जो दावा करे कि उसने धर्म को पा लिया है, उसने तो निश्चित ही न पाया
होगा। दावेदारी का धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह तो बात ही छोटी हो गई। जिसे तुम पा
लो, वह धर्म ही बड़ा छोटा हो गया। जो तुम्हारी मुट्ठी में आ
जाए, वह विराट न रहा। जिसे तुम्हारी बुद्धि समझ ले,
वह समझने के योग्य ही न रहा। जिसे तुम्हारे तर्क की सरणी में जगह
बन जाए, जो तुम्हारे कटघरों में समा जाए, वह धर्म का आकाश न रहा।
बुद्ध ने कहा है, जब तुम ऐसे मिट जाओ कि आत्मा
भी न बचे, अनात्मा हो जाओ, अनात्मावत
हो जाओ, अनत्ता हो जाओ, शून्य हो
जाओ, तभी जिसका आविर्भाव होता है, वही धर्म है: एस धम्मो सनंतनो।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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