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Monday, November 14, 2016

ज्योतिषी के पास क्यों जाते हैं?



मैंने सुना है, एक युवक ज्योतिष का अध्ययन करके लौटा। उसका पिता पुराना अनुभवी ज्योतिषी था। उसने अपने बेटे से कहा कि जल्दी मत करना। क्योंकि यह ज्योतिष बडी गहरी कला है। इसमें सत्य कहना आवश्यक नहीं है। इसमें सत्य कहने से बचना पड़ता है। और इसमें सत्य भी कहना हो तो ऐसे ढंग से कहना होता है कि उसका पता न चल पाए। इसमें असत्य भी बोलने पड़ते हैं। यह बड़ी मीठी कला है। इसमें सिर्फ शास्त्र के शान से कुछ न होगा। तू ठहर। हर किसी को ज्योतिष का ज्ञान मत दिखाने लगना।


लेकिन उस युवक ने कहा, कि मैं काशी से लौटा हूं और सब शान पूरा पा लिया हूं और अब रुकना मुझसे नहीं हो सकता। मैं जाता हूं सम्राट के पास। और जितना मैं जानता हूं उससे मैं घोषणा कर सकता हूं कि क्या होने वाला है। उसने कहा, तेरी मर्जी। मैं भी पीछे आता हूं।


बाप ने कहा कि पहले मैं सम्राट को कुछ कहूं उसका हाथ देखूं फिर तू देखना। बाप ने हाथ देखा, और उसने कहा कि साम्राज्य और बढ़ेगा; तेरे जीवन में सूर्योदय होने के करीब है। युवक थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि रेखाए कुछ और कहती हैं, यह आदमी मरने के करीब है।


बाप को सम्राट ने सम्मानित किया, धन दिया, कीमती वस्तुएं भेंट कीं। बेटे ने हाथ देखकर कहा कि एक बात भर निश्चित है कि तुम सात दिन से ज्यादा नहीं जीओगे। सम्राट ने उसे पकड़वाकर कोड़े लगवाए। बाप खड़ा देखता हंसता रहा। पिटे हुए लड़के को लेकर घर लौटा'। उससे कहा कि देख, शास्त्र में जो लिखा है वह समझदारों के लिए है। समझदार कहां हैं लेकिन! वह मुझे भी दिख रहा था कि सात दिन में मरेगा, लेकिन उसके पहले अपने को मरना हो तो इसकी घोषणा करनी है। सत्य कहना काफी नहीं है। वह क्या चाहता है? उसकी वासना क्या है? उसकी हाथ की रेखा से ज्यादा उसकी इच्छाओं की रेखाओं को पहचानना जरूरी है।


इसलिए जब आप ज्योतिषी के पास जाते हैं, तो वह आपकी इच्छाओं की रेखाएं पहचानता है। वह कोशिश करता है, वासनाएं कहां दौड़ रही हैं, उनमें जितनी दूर तक सहयोग दे सके, देता है।

मरते दम तक भी आदमी यह सुनना नहीं चाहता है कि वह मर रहा है, या मरने वाला है।

कठोपनिषद 

ओशो

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